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________________ अजीव तत्त्व वर्णन २३७ काल का वर्णन आगे सूत्र ३८ में करेंगे। यहां तो उसके कार्य ही बताये गये हैं, इन कार्यों से ही काल का संकेत प्राप्त होता है । (१) वर्तना - यद्यपि प्रत्येक द्रव्य अपनी निजी शक्ति से पर्यायरूप - परिणमन करता है, नई-नई पर्याय धारण करता है; किन्तु काल उसमें निमित्त कारण बनता है । इस अपेक्षा से ही वर्तना को कालद्रव्य का उपकार कहा (२) परिणाम - द्रव्य जो स्वजाति को त्यागे बिना अपरिस्पन्द पर्याय रूप परिणमन करता है, उसे परिणाम कहा जाता है । इसके दो भेद है - १. अनादि और २. सादि अथवा आदिमान । परिणाम का विस्तृत वर्णन सूत्र ३८ के अन्तर्गत किया जायेगा । (३) क्रिया - क्रिया का अभिप्राय यहां गति है । वह गति परिस्पन्द रूप भी है और क्रिया अर्थात् गमनरूप भी । यह तीन प्रकार की है - १. प्रयोगगति, २. विस्त्रसागति और ३. मिश्रगति । (४) परत्व-अपरत्व- परत्व का अभिप्राय ज्येष्ठत्व और अपरत्व का अभिप्राय कनिष्ठता है । यह तीन प्रकार का है - १. प्रशसांकृत, २. क्षेत्रकृत और ३, कालकृत। धर्म महान है, अधर्म निकृष्ट हैं, यह प्रशंसाकृत परत्व-अपरत्व है । अमुक स्थान निकट और अमुक दूर है, यह क्षेत्रकृत परत्व-अपरत्व का ' उदाहरण है कालकृत परत्व-अपरत्व के बारमें में यह उदाहरण पर्याप्त होगा - राम की आयु १० वर्ष है और श्याम की आठ वर्ष । अतः राम श्याम से ज्येष्ठ है तथा श्याम राम की अपेक्षा कनिष्ठ है । इस प्रकार जीव आदि द्रव्यों के उपकार को समझ लेना चाहिए। आगम वचन .. पोग्गले पंचवण्णे पंचरसे दुगन्धे अफासे पण्णत्ते । - भगवती, श. १२, उ. ५, सूत्र ४५० सद्दन्धयार उज्जोओ, पभा छायातवाइ वा । वण्णरसगंधफासा पुग्गलाणं तु लक्खणं । एगत्तं च पुहत्तं च, संखा संठाणमेव य । संजोगा या विभाग य, पज्जवाणा तु लक्खणं । - उत्तर२८/१२-१३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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