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________________ अजीव तत्त्व वर्णन २३१ ऐसा किस प्रकार संभव है? तो बताया गया कि दीपक के प्रकाश के समान संकोच-विस्तार शक्ति (स्वभाव) के कारण ऐसा होता है । एक जीव का सम्पूर्ण लोक में अवगाह तो सिर्फ केवलि-समुद्घात के समय होता है । शेष सभी अवस्थओं में एक जीव का अवगाह लोक के असंख्यातवें भाग में ही होता है । किन्तु लोक का असंख्यातवाँ भाग भी असंख्यात प्रकार का होता है, इसिलिए एक जीव का अवगाह भी असंख्यात प्रकार का होता है । असंख्यात प्रकार के अवगाह का कारण - संसारी अवस्था में जीव के साथ कार्मण और तैजस शरीर अवश्य होते हैं और इन्हीं के आकार परिमाण के अनुसार औदारिक शरीर होता है । संसारी जीव इन्ही शरीरों के आकार के अनुसार अपने प्रदेशों का संकोच अथवा विस्तार करता है ।। उदाहरणार्थ - कोई हाथी मरकर मनुष्य बना तो हाथी रूप लम्बे डील-डौल में फैले आत्म-प्रदेश मानव-शिशु के आकार में संकुचित हो जाते हैं । और ज्यों-ज्यों शिशु का शरीर बढ़ता है, युवा होता है, त्यों-त्यों उसी के अनुसार आत्म-प्रदेश भी विस्तार पाते जाते हैं । क्योंकि नियमतः जीव के प्रदेश शरीर में ही व्याप्त रहते हैं, न शरीर का कोई भी भाग आत्मप्रदेशों के रिक्त होता है और न आत्मा के प्रदेश शरीर से बाहर फैले रहते हैं । विशेष - समुद्घात आदि तथा वैक्रिय आहारक आदि लब्धियों के प्रयोग की यहाँ अपेक्षा नहीं की गई है, क्योंकि उसमें तो जीव के प्रदेश शरीर से बाहर ही फैलते हैं । । सूत्र में जो दीपक के प्रकाश की आत्म-प्रदेशों के साथ संकोच-विस्तार की उपमा दी गई है, उसका भी हार्द यही है कि यदि दीपक को कमरे में रख दिया जया तो उसका प्रकाश पूरे कमरे में फैलेगा और यदि किसी पात्र से ढक दिया जाय तो वह सम्पूर्ण प्रकाश पात्र के अल्प क्षेत्र मे ही सीमित होकर रह जायेगा । इसी प्रकार जीव-प्रदेश भी छोटे-बड़े शरीर के अनुसार संकोच और विस्तार कर लेते हैं । यह जीव का स्वभाव है । यहाँ जिज्ञासा हो सकती है कि धर्म-अधर्म द्रव्यों के प्रदेशों में यह संकोच-विस्तार की शक्ति क्यों नहीं होती ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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