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________________ २३० तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ५ : सूत्र १२-१६ इसका आशय यह नहीं है कि वहां जीव और पुद्गल की अवस्थिति नहीं है । जीव और पुद्गलस्तिकाय भी हैं अवश्य; किन्तु गतिशील द्रव्य होने से उनकी यहां अपेक्षा नहीं की गई है । 'भाज्यः' शब्द का पुद्गल के सन्दर्भ में विशेषार्थ - 'भाज्यः' का अर्थ है विकल्प । सूत्र का अभिप्राय है विकल्प से पुद्गलो का अवगाह एक प्रदेश आदि में है । पुद्गल द्रव्य अनेक प्रकार के हैं, यथा-अणु, व्यणुक, त्र्यणुक, संख्येय प्रदेश असंख्येय प्रदेश, अनन्त प्रदेश, अनन्तानन्त प्रदेश आदि । इनमें से अणु, द्वयणुक (दो अणुओं का स्कन्ध), त्र्यणुक (तीन अणुओं का स्कन्ध) आदि यहाँ तक संख्यात, असंख्यात, अनन्त और अनन्तानन्त परमाणुओं का स्कन्ध आकाश के एक प्रदेश पर भी स्थित रह सकता है, दो प्रदेशो पर भी और असंख्यात प्रदेशों पर भी ।। यानी अधिक अणुओं वाला स्कन्ध आकाश के कम प्रदेश पर अवस्थित रह सकता है; किन्तु पुदगल का कोई भी स्कन्ध अपने परमाणुओं की संख्या से अधिक आकाश प्रदेशों को नहीं घेर सकता । अधिक अणु संख्या वाला पुद्गल स्कन्ध आकाश के कम प्रदेशों पर कैसे अवस्थित रहता है ? इस प्रश्न का समाधान यह है कि पुद्गल में सूक्ष्मत्व परिणमन शक्ति होती है। उसी शक्ति के कारण उसमें यह क्षमता है । इसी कारण अपने परमाणु संख्या से अधिक अपनी अवस्थिति के लिए उसे आकाश प्रदेशों की आवश्यकता ही नहीं पड़ती । अनन्तानन्तपुद्गल परमाणुओं का पिण्ड (महास्कन्ध) भी इसी सूक्ष्म परिणमन शक्ति के कारण आकाश के असंख्यात प्रदेशों में समा जाता है । इस सूक्ष्म परिणमन शक्ति का एक और प्रभाव होता है और वह है व्याघातरहितता, अर्थात् न किसी से बाधित होना और न किसी अन्य को किसी भी प्रकार की बाधा पहुंचाना । ___यद्यपि पुद्गल द्रव्य (अस्तिकाय) मूर्त है और अनन्तानन्त परमाणुओं के उसके स्कन्ध भी हैं, किन्तु सूक्ष्म परिणमन शक्ति के कारण वे स्कन्ध न किसी को बाधा पहुंचाते है और न स्वयं ही किसी अन्य द्वारा बाधित होते जीव के अवगाह की विशेषता और उसका कारण - एक जीव का अवगाह लोक के असंख्यातवें भाग में होता है और सम्पूर्ण लोक में भी। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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