________________
२३२ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ५ : सूत्र १२-१६
1
इसका समाधान यह है कि धर्म-अधर्म अस्तिकाय को संकोच - विस्तार की शक्ति की आवश्यकता ही नहीं है। जीव को तो आवश्यकता कर्म- संयोग के कारण है । कर्म-प्रभाव जैसा भी छोटा-बड़ा शरीर मिला, उसके अनुसार उसे अपना संकोच - विस्तार करना ही पड़ता है । सिद्ध जीवों में कर्म- संयोग न रहने से उनके आत्म- प्रदेश भी तदाकार (शरीर छूटते समय जिस आकार जिस परिमाण के थे, उसी परिमाण और आकार के) बने रहते हैं ।
धर्म-अधर्म- - पुद्गल - जीव अस्तिकाय तो लोकाकाश के आधारपर अवस्थित हैं; किन्तु आकाश स्वाधारित है यानी वह अन्य किसी भी द्रव्य (अस्तिकाय) के आधारपर अवस्थित नहीं; वह अपना अधिष्ठान स्वयं ही है, उसे किसी अन्य आधार की आवश्यकता ही नहीं है ।
आगम वचन
-
धम्मत्थिकाएणं जीवाणं आगमण-गमण - भासुम्मेस-मण- जोगा वइ - जोगा कायजोगा जे यावन्ने तहप्पगारा चला भावा सव्वे ते धम्मत्थिकाए पवत्तंति ।
गइलक्खणे णं धम्मत्थिकाए
।
(धर्मास्तिकाय जीवों के गमन, आगमन, भाषा, उन्मेष, मनोयोग, वचनयोग, काययोग (के लिए निमित्त होता है ), इनके अतिरिक्त और जो भी इस प्रकार के चल भाव हैं, वे सब धर्मास्तिकाय के होने पर ही होते हैं, क्योंकि
'गति' धर्मास्तिकाय का लक्षण है ।
अहम्मत्थिकाएणं जीवाणं ठाण- निसीयण तुयट्टण मणस्स य गत्तीभावकरणता जे यावन्ने तहप्पगारा थिराभावा सव्वे ते अहम्मत्थिकाए पवत्तंति ।
ठाण लक्खणें णं अहम्मत्थिकाए ।
(अधर्मास्तिकाय जीवों के लिए ठहरना, बैठना, त्वग्वर्तन ( करवट बदलना) और मन की एकाग्रता करता है । इनके अतिरिक्त और जो भी इस प्रकार के स्थिर भाव हैं, वह अधर्मास्तिकाय के होनेपर ही होते हैं; क्योंकि अधर्मास्तिकाय स्थिति लक्षण वाला है ।
आगासत्थिकाएणं जीवदव्वाण य अजीवदव्वाण य भायणभूए
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org