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________________ २०६ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ४ : सूत्र २७-२८ पशमिक सम्यग्दृष्टि (यदि सम्यक्त्व न छूटे तो) सात-आठ भव में मुक्ति प्राप्त कर लेता है । आगम वचन - उववाइया मणुआ (सेसा) तिरिक्खजोणिया - दशवैकालिक, अ. ४, षट्कायाधिकार (औपपातिक (देव और नारक) तथा मनुष्य के अतिरिक्त सभी (संसारी) जीव तिर्यचयौनिक हैं ।) तिर्यचयौनिक जीवों का लक्षण - औपपातिकमनुष्येभ्यः शेषस्तिर्यग्योनय : ।२८ । __(उपपात जन्म वाले और मनुष्यों के अतिरिक्त सभी जीव तिर्यंच योनि वाले हैं । विवेचन - इस सूत्र में तिर्यचयौनिक जीवों का लक्षण जन्म की अपेक्षा से दिया गया है । कहा गया है कि औपपातिक (जिनका जन्म उपपात से हो - ऐसे देव अथवा नारक जीव होते हैं) तथा मनुष्यों (जिनके मनुष्य आयु और मनुष्यगतिनामकर्म का उदय हो) के अतिरिक्त सभी जीव तिर्यचयौनिक हैं । यहाँ यह सामान्य जिज्ञासा हो सकती है कि देवों का वर्णन करतेकरते अचानक ही ऐसी क्या आवश्यकता आ पड़ी कि आचार्य ने तिर्यंच योनि का लक्षण बताने वाला सूत्र रच दिया । इसका समाधान यह है कि तीसरे और चौथे अध्याय में लोक वर्णन हुआ है । इसमें तीसरे अध्याय में अधोलोक में नारक जीवों का, मध्यलोक में मनुष्य क्षेत्र का - भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क देवों का और ऊर्ध्वलोक में वैमानिक देवों का वर्णन किया गया है । इस प्रकार नारक, मनुष्य और देव- इन तीन प्रकार के जीवों का गतियों का लोक के सन्दर्भ में वर्णन हुआ किन्तु तिर्यं गति - इन तीनों गतियों की अपेक्षा अधिक अधिक विस्तृत हैं, इसमें जीव राशि भी अत्यधिक हैं, व्यवहारअव्यवहार जीव राशि, निगोद आदि सभी तिर्यचयौनिक हैं, एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों तक इसका विस्तार है, सूक्ष्म-स्थूल, त्रसबादर आदि अनेक प्रकार के जीव तिर्यचयौनिक हैं, इनमें से दो इन्द्रिय आदि त्रस तो त्रस नाड़ी में ही हैं, लेकनि स्थावर तो त्रस नाड़ी में भी हैं, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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