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ऊर्ध्वलोक-देवनिकाय २०५ गोयमा ! कस्सइ अत्थि कस्सइ पत्थि, जस्सत्थि, अट्ठ वा सोलस वा इच्चाइ | - प्रज्ञापना, पद १५, इन्द्रिय पद ।
(विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित के देवपने में कितनी द्रव्येन्द्रियां बीत जाती है ?
गौतम! किसी के होती हैं और किसी के नहीं भी होतीं । जिनके होती हैं उनके आठ या सोलह होती हैं ।
(विशेष - एक जन्म की आठ द्रव्येन्द्रिय (स्पर्शन, रसना, २ नाक, २ कान और २ आंख) मानी गई हैं अत एव दो जन्मों की सोलह द्रव्येन्द्रिया हुईं । ) अनुत्तर विमानवासी देवों की विशिष्टता -
विजयादिषु द्विचरमाः । २७ । (विजय आदि विमानों के देव दो बार मनुष्य जन्म धारण करते हैं।)
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में विजय आदि विमानवासी देवों की मुक्ति के बारे में संकेत किया गया है । उन्हें द्विचरम बताया गया है । इसका अभिप्राय है कि यह देव अधिक से अधिक दो बार मनुष्य जन्म धारण करेंगे और फिर मुक्त हो जायेंगे ।
जन्म धारण का क्रम इस प्रकार है - विजय आदि विमानसे च्यवकर मानव-पर्याय धारण करते हैं, वहां तपस्या आदि करके पुनः विजय आदि विमान में उपपात और फिर मनुष्य जन्म धारण करके तप-संयम साधना तथा उसी जन्म में मुक्ति की प्राप्ति ।
. किन्तु यह उत्कृष्ट स्थिति है, अर्थात् वे देव अधिक से अधिक दो बार मनुष्य बनेगें और कोई-कोई तो एक बार मनुष्य भव पाकर उसी से मुक्त हो जाते हैं । ..
यह अधिक से अधिक दो बार मनुष्य जन्म का नियम भी विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित विमानों के लिए ही है, सर्वार्थसिद्ध विमान के लिए तो स्पष्ट नियम है कि ये देव एकभवावतारी होते हैं यानी सर्वार्थसिद्ध से च्यवकर मनुष्य जन्म और उसी भव से मुक्ति ।
शेष देवों के लिए मुक्ति प्राप्ति का कोई स्पष्ट नियम नहीं है कि वे कितने भव में मुक्ति प्राप्त करेंगे । हां, सम्यक्त्व की अपेक्षा इतना निश्चित है कि क्षायिक सम्यग्दृष्टि तीन भव में मुक्ति प्राप्त कर लेता है तथा क्षायो
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