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________________ ऊर्ध्व लोक - देवनिकाय १९९ में असंख्यात लाख योजन तक और अधोदिशा में रत्नप्रभा पृथ्वी तक जानते है । तीसरे-चौथे स्वर्ग के देव ऊर्ध्व दिशा में अपने विमान तक, तिर्यक् दिशा में असंख्यात लाख योजन तक और अधोदिशा में शर्कराप्रभा भूमि तक देख / जान सकते है । इसी प्रकार पाँचवें - छठे स्वर्ग के देव बालुकाप्रभा तक, सातवें-आठवें स्वर्ग के देव पंकप्रभा पर्यन्त, नौवें से बारहवें स्वर्ग तक के देव धूम्रप्रभा तक, अधस्तन और मध्यम ग्रैवेयक के देव तमःप्रभा तक और अनुत्तर विमानवासी देव सम्पूर्ण त्रस नाड़ी के देख / जान सकते हैं । हीयमान बातें निम्न चार बाते ऐसी है जो ऊपर के देवों में क्रमशः उत्तरोत्तर कम होती जाती है । (१) गति गति का अर्थ चलना - गमन करने की क्रिया है । ऊपर के देवों में उदासीन भाव बढ़ता जाता है, अतः इनकी इधर-उधर जाने में रुचि कम होती चली जाती है । ― यद्यपि सानत्कुमार आदि देव सातवीं नरकभूमि तक जाने में समर्थ होते हैं, किन्तु तीसरी नरकभूमि से आगे कभी कोई देव न तो गया ही है और न जायेगा ही । (२) शरीर - ऊपर-ऊपर के देवों के शरीर का आकार घटता चला जाता है । पहले- दूसरे स्वर्ग के देवों का शरीर ७ हाथ का, तीसरे चौथे का ६ हाथ का, पाँचवे छठे का ५ हाथ का, सातवें, आठवें का ४ हाथ का ९१०-१-१२ वें की तीन-तीन हाथ का, नवग्रैवेयकों का २ हाथ का और ५ अनुत्तर विमानवासी देवों का शरीर मात्र १ हाथ का ही होता है । (३) परिग्रह ऊपर के स्वर्गों में परिग्रह उत्तरोत्तर कम होता चला जाता है। ऊपर-ऊपर के स्वर्गों के उत्तरोत्तर विमान संख्या भी कम है और उन देवों का परिवार परिग्रह ( आसक्ति) आदि भी अल्प होता चला गया है। Jain Education International - (४) अभिमन ऊपर-ऊपर के देवों की यद्यपि द्युति, शक्ति आदि अधिक-अधिक है, किन्तु उन्हे अपनी विभूति, तेज, लब्धि आदि का अहंकार कम होता चला गया है । इनके अहंकार की न्यूनता का कारण कषायों की भावों की गंभीरता है मन्दता । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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