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________________ १९८ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ४ : सूत्र २१-२२ यहाँ क्रम नीचे से ऊपर की ओर हैं । जैसे पहले स्वर्ग में जितना सुख आदि हैं, दूसरे स्वर्ग में उससे अधिक हैं । सूक्ष्मता से विचार करने पर पहले स्वर्ग के प्रथम प्रतर के देवों को जितना सुख आदि हैं, उसी स्वर्ग के दूसरे प्रतर के देवो को उससे अधिक है। वर्द्धमान बातें (१) स्थिति स्थिति का अभिप्राय है आयु । इस विषय में विस्तृत वर्णन इसी अध्याय के सूत्र ३० से ५४ तक में किया गया है । किन्तु यहाँ यह समझ लेना चाहिए कि एक ही विमान के प्रथम प्रतर से दूसरे प्रतर वाले देवों की आयु अपेक्षाकृत अधिक होती है । यही बात निम्न ६ विषयों में भी समझ लेनी चाहिए, के क्रमशः उत्तरोत्तर अधिक होती जाती है । - - (२) प्रभाव ऐश्वर्य अथवा विभूति को प्रभाव कहते हैं । लब्धि, ऋद्धि, अनुग्रह, उपग्रह आदि की सामर्थ्य भी प्रभाव है । यह उत्तरोत्तर देवों में अधिक हैं । किन्तु कषाय की मन्दता होने से वे इनका उपयोग नहीं करते हैं । - (३) सुख इन्द्रियों द्वारा अनुभव रूप सुख (४) द्युति - शरीर, वस्त्र आभूषण आदि की कांति-दीप्ति - यह दोनों भी अधिक होते हैं । इसका कारण है ऊपर-ऊपर के स्वर्गों में शुभ पद्गलों की प्रकृष्टता होती है । Jain Education International - (५) लेश्या - विशुद्धि उत्तरोत्तर देवों की लेश्या क्रमशः अधिक विशुद्ध होती है । - यद्यपि लेश्या का वर्णन सूत्र २३ में किया गया है; किन्तु यहाँ इतना समझ लेना चाहिए कि जिन देवों में एक समान लेश्या बताई गई हैं, उनमें भी नीचे के देवों की अपेक्षा ऊपर के देवों के परिणाम कम संक्लिष्ट होने के कारण उनकी लेश्या अपेक्षाकृत अधिक विशुद्ध होती है । (६) इन्द्रियविषय (७) अवधिज्ञानविषय नीचे के देवों की अपेक्षा ऊपर के देवों की इन्द्रियों की ग्रहण शक्ति अधिक होती है । इसी प्रकार उनका अवधिज्ञान भी अधिक विस्तृत और अधिक विषयों को ग्रहण करने वाला तथा निर्मल होता है । अवधिज्ञान विषयक संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है पहले- दूसरे कल्प के देव ऊपर अपने विमान तक को, तिरछी दिशा - For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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