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१८६ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ४ : सूत्र १३-१६ संधित्सु छात्र की स्थिति में है जो सत्य की खोज में लगनशील है, प्रकृति के रहस्यों को उद्घाटित करने में जुटा हुआ हैं; फिर भी जितनी खोज वह कर सका है, उसका काफी प्रचार हो रहा है ।।
यद्यपि आज तक कोई वैज्ञानिक यह दावा नहीं कर रहा है कि उसने पूर्णरूप से सत्य का पता लगा लिया है, वह अन्तिम बिन्दु तक जा पहुंचा है, अपितु महान वैज्ञानिक न्यूटन के शब्दों में उनकी यही मान्यता है कि 'अभी हम तो किनारे के कंकर-पत्थर ही बटोर रहे हैं, ज्ञान का महासागर तो अभी हमसे बहुत दूर है ।
इतना होने पर जन-सामान्य वैज्ञानिक खोजों के परिणामो को अन्तिम सत्य स्वीकार करके मन-मस्तिष्क में धारण करते चले जा रहे हैं । इसी कारण यहाँ आधुनिक विज्ञान की भूगोल-खगोल सम्बन्धी धारणाओं का संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है ।
सौर-मण्डल की उत्पत्ति . . वैज्ञानिक इस लोक को जैन दर्शन के समान शाश्वत नहीं मानते, अपितु एक घटना (अथवा दुर्घटना Accident) का परिणाम मानते हैं, वह घटना वैज्ञानिक इस प्रकार बताते हैं -
अनुमानतः आज से २ अरब वर्ष पूर्व कोई विशालकाय तारा हमारे सूर्य से टकरा गया होगा । उस टकराहट से सूर्य में उथल-पुथल मच गई होगी और सूर्य से कई खण्ड टूटकर अलग हो गये होंगे । वे ही मंगल, बुध, गुरू, शुक्र, शनि के तारे है और उस सूर्य का ही एक टुकड़ा पृथ्वी है । फिर भी सूर्य काफी बड़ा शेष रहा था । इस कारण उसकी आकर्षण शक्ति भी सबसे अधिक थी । इसीलिए ये सभी पिण्ड सूर्य की आकर्षण शक्ति से प्रभावित होकर उसके चारों ओर घूमने लगे ।
प्रारम्भ में पृथ्वी सेव के समान ऊपर के सिरे पर नुकीली थी । किन्तु तीव्र गति से घूमने के कारण उसकी ऊपर की नोंक टूटकर छिटक गई और वह चन्द्रमा बन गई तथा पृथ्वी के चारों ओर घूमने लगी । यही कारण है कि चन्द्रमा पृथ्वी के चारों ओर घूमता है ।।
प्रारम्भ में पृथ्वी अति उष्ण थी । धीरे-धीरे वह सूर्य से दूर होती गई । उसका परिभ्रमणचक्र बढ़ता गया और उसी मात्रा में वह ठण्डी होती गइ । फिर उसका वायुमण्डल बना, गैसे बनीं जो पानी बनकर बरसी और सागर, महासागर आदि बने । ऊबड़-खाबड़ पृथ्वी पर कही
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