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________________ उपोद्घात तीसरे अध्याय में नारक, मनुष्य और तिर्यंच इन तीन प्रकार के जीवों का वर्णन हुआ हैं, इनकी स्थिति आदि का भी परिचय दिया गया हैं । साथ ही अधोलोक और मनुष्यलोक ( तिर्यक्लोक) का वर्णन किया है । अब इस चतुर्थ अध्याय में देव ( उनकी स्थिति, लेश्या, विशेषता, निवास आदि ) और ऊर्ध्वलोक का वर्णन किया जा रहा है। आगम वचन चौथा अध्याय ऊर्ध्वलोक - देवनिकाय (UPPER REGION-GOD ABODE) - चउव्विहा देवा पण्णत्ता, भवणवइ वाणमंतर जोइस वेमाणिया । भगवती, श. २, उ.. ७ (देव चार प्रकार के होते हैं । (१) भवनवासी (२) वाणव्यंतर (३) ज्योतिष्क और (४) वैमानिक 1. देवों के भेद - देवाश्चतुर्निकाया: 1१। देवों के चार निकाय हैं । Jain Education International तं जहा - विवेचन प्रस्तुत सूत्र में दो शब्द हैं देव और निकाय । देव एक गति का नाम हैं । इस गति में जो जन्म लेता है, वह देव कहा जाता है । सैद्धान्तिक भाषा में देवगतिनामकर्म के उदय से जीव जिस पर्याय को धारण करता है, वह देवगति है और उस देवायु को भोगने वाला जीव देव कहा जाता है । - 'देव' शब्द दिव् धातु से बना है जो द्युति, गति आदि का सूचन करता है । अतः देव के व्यावहारिक लक्षण यह हैं कि जिसका शरीर दिव्य अर्थात् सामान्य चर्मचक्षुओं से न दिखाई दै, जिसकी गति (गमनशक्ति) अति वेग वाली हो जिसके शरीर में रक्त मांस आदि धातुएँ न हों, मनचाहे रूप For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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