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________________ ऊर्ध्वलोक-देवनिकाय १६१ बना सके, आँखो के पलक न झपके, पैर जमीन से चार अंगुल उँचे रहें, शरीर की छाया न पड़े । निकाय का अर्थ संघ, जाति अथवा समूह हैं । देव चार प्रकार के हैं, भवनवासी, बाणव्यंतर ज्योतिष्क और वैमानिक । (तालिका पृष्ठ १६२ पर दी गई है।) इन चारों प्रकार के देवों के निवास स्थान भी अलग-अलग हैं । भवनवासियों का उत्पत्ति स्थान रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर-नीचे के एक-एक हजार योजन के भाग को छोड़कर शेष मध्य भाग है । बाणव्यंतर इस ऊपर के एक हजार योजन के भाग से ऊपर नीचे के सौ-सौ योजन को छोड़कर बीच के ८०० योजन भाग में उत्पन्न होते हैं । ज्योतिषी देवों का निवास स्थान पृथ्वी से ऊपर ७९० योजन से लेकर ९०० योजन तक है और वैमानिक देव ऊर्ध्वलोक में विमानों में उत्पन्न होते हैं । आगम वचन जोतिसियाणं एगा तेउलेसा... - स्थानांग, स्थान १, सूत्र ५१ (ज्योतिष्क देवों के सिर्फ एक तेजोलेश्या होती है ।) ज्योतिषी देवों की लेश्या - तृतीयः पीतलेश्यः ।२। ... (तीसरा निकाय अर्थात ज्योतिष्क देवों के पीत लेश्या होती है ।) विवेचन - पीतलेश्या का दूसरा बहुप्रचलित नाम ही तेजोलेश्या ह। यह नाम आगमों में बहुत प्रसिद्ध हैं । वैसे 'पीत' और 'तेजस्' इनमें सिर्फ नामभदे है, स्वरूपगत भेद नहीं हैं, दोनो ही एकार्थवाची हैं । - पीत अथवा तेजोलेश्या का अर्थ यहाँ द्युति अथवा चमक समझना चाहिए। हम जो 'नक्षत्र आदि देखते हैं तो इनकी चमक, द्युति, रोशनी अथवा तेज (प्रकाश) ही हमें दिखाई देता हैं यद्यपि यह प्रकाश उन ज्योतिषी देवों के विमानों का होता हैं; किन्तु उनमे रहने वाले देवों की लेश्या ही यहाँ विशेष रूप से अपेक्षित हैं । आगम वचन - भवणवइ दसविहा पण्णत्ता.. वाणमंतरा अट्ठविहा पण्णत्ता.. जोइसिया पंचविहा पण्णत्ता..वेमाणिया दुविहा पण्णत्ता तं जहाकप्पोपवण्णगा या कप्पाइया य णमंतरा अठविहा पणता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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