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________________ अधोलोक तथा मध्यलोक १५९ शुद्ध पृथ्वीकाय की उत्कृष्ट भवस्थिति १२ हजार वर्ष हैं । खर पृथ्वकाय की २२ हजार जलकाय की ७ हजार वर्ष, अग्निकाय की तीन अहोरात्रि (रातदिन) और वायुकाय की ३ हजार वर्ष तथा वनस्पतिकाय की १० हजार वर्ष हैं । इनमें से वनस्पतिकाय को छोड़कर शेष जीवों की उत्कृष्ट कायस्थिति असंख्यात अवसर्पिणी- उतुसर्पिणी प्रमाण हैं । तथा वन-स्पतिकाय की उत्कृष्ट कायस्थिति अनंत उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी प्रमाण है । ____द्वीन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट भवस्थिति १२ वर्ष, त्रीन्द्रियों की ४९ . अहोरात्र और चउरिन्द्रियों की ६ मास प्रमाण है तथा इन तीनों की उत्कृष्ट कायस्थिति संख्यात हजार वर्ष की है । ___ पंचेन्द्रिय तिर्यंचो में जलचर, उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प की उत्कृष्ट भवस्थिति कोटिपूर्व वर्ष की हैं, खेचरों की पल्य के असंख्यातवें भाग हैं, गर्भज चतुष्पदों-थलचरों की ३ पल्योपम हैं । __ इनमें (गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यंचो-चतुष्पदों में) जलचरों की भवस्थिति कोटिपूर्व, उरपरिसरों की ५३ हजार, भुजपरिसर्पो की ४२ हजार और खेचर पक्षियों तथा स्थलचरों की ७२ हजार वर्ष हैं । सम्मूर्छिम जीवों की भवस्थिति ८४ हजार पूर्व हैं । इस प्रकार तिर्यंच जीवों की स्थिति का विशेष कथन भाष्य में किया गया है । ___नारक और देवों की भवस्थिति तथा कायस्थिति समान है कयोंकि नारक जीव पुनः जन्म लेकर नारक नहीं बनते और इसी तरह देव भी पुनः देव नहीं बनते । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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