________________
१५४ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ३ : सूत्र ९-१०-११
भरत क्षेत्र इस प्रकार भरतक्षेत्र के उत्तर में हिमवान पर्वत है तथा पूर्व - पश्चिम, दक्षिण इन तीनों दिशाओं में लवणोदधि समुद्र है । भरतक्षेत्र अर्द्धचन्द्रकार है उसका धनुपृष्ठ ५२६ ६/१९ योजन है ।
भरतक्षेत्र के मध्य में पूर्व-पश्चिम दिशा में हिवमान वर्षधर पर्वत के समानान्तर वैताढ्य पर्वत है । हिमवान पर्वत से निकलने वाली गंगा-सिंधु नदियाँ भरतक्षेत्र में बहती हुई क्रमशः पूर्व और पश्चिम दिशा में लवण समुद्र में गिरती है । इस प्रकार भरतक्षेत्र के छह खण्ड हो जाते हैं । इन छह खण्डों को विजय करने वाला चक्रवर्ती सम्राट कहलाता है ।
आगम वचन
धायइसंडे दीवे पुरिच्छिमद्धे णं मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणेणं दो वासा पन्नत्ता, बहुसमतुल्ला जाव भरहे चेव एरखए चेव एवं पच्छच्छि मद्धे णं । स्थानांग, स्थान २, उ. ३, सूत्र ९२
-
I
(धातकीखण्ड द्वीप के पूर्वार्द्ध में सुमेरुपर्वत के उत्तर-दक्षिण में दोदो क्षेत्र हैं । भरत से ऐरवत तक वह सब प्रकार से बराबर हैं । इसी प्रकार धातकीखण्ड द्वीप के पश्चिमार्द्ध में सुमेरु पर्वत के उत्तर- दक्षिण में दो-दो क्षेत्र हैं । वह भरतक्षेत्र से लगाकर ऐरवत क्षेत्र तक सब प्रकार से बराबर है। ) पुक्खरवरदीवड्ढे पुरच्छिमद्धे णं मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणेणं दो वासा पण्णत्ता बहुसमतुल्ला जाव भरहे चेव एरवए चेव तहेव
स्थानांग, स्थान २, उ. ३, सूत्र ९३ (पुष्करवर द्वीपार्द्ध के पूर्वार्द्ध में सुमेरु पर्वत के उत्तर दक्षिण में दोदो क्षेत्र हैं । वह भरतक्षेत्र से लगाकर ऐरवत क्षेत्र तक सब प्रकार से बराबर हैं । इसी प्रकार पश्चिमार्द्ध में भी रचना है 1 )
—
माणुसुत्तरस्स णं पव्वयस्स अंतो मणुआ ।
- जीवाभिगम, प्रतिपत्ति ३, उ. २, सूत्र १७८ मानुषोत्तराधिकार
-
( मनुष्योत्तर पर्वत तक ही मनुष्य रहते हैं । आगे नहीं रहते ।)
ते समासओ दुविहा पण्णत्ता, तं जहा
Jain Education International
आरिया य मिलक्खू य । ( मनुष्य संक्षेप से दो प्रकार के
से किं तं कम्मभूमगा ?
प्रज्ञापना पद १, मनुष्याधिकार
होते हैं
(१) आर्य (२) म्लेच्छ
-
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org