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________________ ( १३ ) काफी भिन्न हैं । फिर किसी एक ही संस्था से प्रकाशित सम्पूर्ण बत्तीस आगम भी उपलब्ध नहीं है। यदि दो भिन्न-भिन्न संस्करणों के सूत्रांक दिये जायें तब भी सम्पूर्ण आगम नहीं मिलते । ऐसी स्थिति में जो आगम उपलब्ध नहीं है, उनके सूत्रांक तो आगमोदय समिति के ही रखने होंगे, यों 'आधा तीतर आधा बटेर' वाली कहावत बन सकती है। इस समस्या का समाधान आखिर यही सोचा कि आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज ने आगमोदय समित रतलाम के पाठ दिये हैं, उन्हे ही मान्य रखा जाय। ___ आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज ने तत्त्वार्थ सूत्र का जो मूल पाठ दिया है उसमें पंडित सुखलाल जी के मूल पाठ से कहीं-कहीं भिन्नता है। जिसकी चर्चा मैंने विवेचन में की है। पंडित सुखलाल जी अपने पाठों को श्वेताम्बर परम्परा मान्य पाठ बताते हैं, किन्तु दो चार सूत्र ऐसे हैं जो __आचार्यश्री द्वारा उद्धृत पाठ आगमों के अधिक नजदीक हैं, पंडित जी द्वारा उद्धृत पाठ आगम से दूर पडते हैं । उदाहरण स्वरूप आचार्य श्री ने पाठ लिया हैपृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतय:स्थावरा :। -२/१२ द्वीन्द्रियादयस्वसाः -२/१३ वहाँ पंडित जी ने निम्न पाठ लिया हैपृथिव्यम्बुवनस्पतयः स्थावराः ।१३। तेजोवायूद्वीन्द्रियादयश्च त्रसा: ।१४। अर्थात्-पृथिवी, जल और वनस्पति--यह तीन स्थावर हैं ।१३। तथा अग्नि, वायु और द्वीन्द्रिय आदि त्रस हैं।१४। यद्यपि इन तीन स्थावर और तीन त्रस के सूत्र ठाणं ३,३,२१५; और जीवाभिगम १,२२ आदि तथा उत्तराध्ययन ३६/६०-७० में भी प्राप्त होते हैं । किन्तु ठाणं ५/१/ ३६४ में ही पृथिवी, अग्नि, जल, वायु और वनस्पति-इन पाँचो को स्थावरकाय बताया तथा जीवाभिगम १/२७ में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों को त्रस कहा है। ___ यह दोनों प्रकार के स्पष्ट आगम प्रमाण होते हुए भी मैंने प्रस्तुत कृति में ५ स्थावर वाला कथन ही प्रमाण मानकर स्वीकृत किया है। उसका प्रमुख कारण तो आगम का (५ स्थावर वाला पाठ) प्रमाण ही है। साथ ही परम्परा में भी, थोकड़ों आदि में भी और सर्वत्र ५ स्थावर बताये गये हैं । अतः लोगों की श्रद्धा व धारणा को ठेस न लगे, वे व्यर्थ भ्रम में न पड़ें, इसलिये भी ५ स्थावर का पाठ मान्य किया गया । इसके अतिरिक्त तत्त्वार्थ सूत्र के ही इसी अध्याय के सूत्र २३ में सूत्र पाठ है वाय्वान्तानामेकम् । इसका अभिप्राय है-पृथिवी, जल, वनस्पति, अग्नि और वायुकायिक जीव एकेन्द्रिय होते हैं। इस सूत्र का मेल मिलाने के लिए भी पांच स्थावर वाला सूत्र अधिक संगत है, अंत: वही मान्य किया गया है। इन सभी कारणों से यह पाठ स्वीकार किया गया । इस विषय का विशेष स्पष्टीकरण इन सूत्रों (१३ वाँ, १४ वाँ सूत्र) के विवेचन में आचार्य सिद्धसेन आदि का मत देकर कर दिया गया है। दूसरा विशेष स्पष्टीकरण अध्याय ६/३६ शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः के बारे में किया . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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