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________________ ( १४ ) गया है। आगमोक्त उद्धरणों तथा अन्य दृष्टांतों से पूर्वविद :शब्द का विशेष स्पष्टीकरण कर दिया गया है कि 'पूर्वविद: का अभिप्राय पूर्वानुसारी ज्ञान के धारण करने वाला साधक है। इसी प्रकार से अन्य स्पष्टीकरण जहाँ भी आवश्यक प्रतीत हुए वहाँ आगमोक्त उद्वरणों और प्रमाणों से स्पष्ट कर दिये गये हैं। इसके अतिरिक्त प्रस्तुत संपादन - अनुवाद-विवेचन में अपनी चिरपरिचित मध्यम शैली का अनुसरण किया है। अधिक तुलनात्मक अध्ययन का समावेश करके ग्रन्थ को न तो शोध ग्रन्थ जैसा बोझिल और उबाऊ ही बनाया है कि पाठक भूल -भुलैया में ही उलझ कर रह जाये, कुछ समझ ही न सके और इतना सरल भी नहीं रखा है कि तत्त्वजिज्ञासु-पिपासु पाठक को इसमें कुछ मिले ही नहीं, उसकी प्यास ही शांत न हो। अपितु प्रयास ऐसा किया गया है कि जिज्ञासु पाठक इसको पढ़कर तत्त्वों से परिचित हो, भगवान की वाणी का रसास्वादन करने में सक्षम हो । विवेचन को अधिक सुबोध व ग्राह्य बनाने के लिए प्रत्येक विस्तृत विषय के भेद -प्रभेद का चार्ट-एक तालिका भी बना दी गई है। __ प्रस्तुत संपादन में सर्वप्रमथ आगम वचन-मूल प्राकृत पाठ, उसका सरल हिन्दी में अनुवाद, तत्पश्चात् तत्त्वार्थसूत्र का सूत्र, उसका सरल हिन्दी अनुवाद और फिर विवेचन दिया गया है। विवेचन में मूलाधार आचार्य उमास्वाति के स्वोपज्ञभाष्य को रखा गया है। इसके अतिरक्त कुछ आधुनिक विज्ञान सम्बन्धी पुस्तकों तथा जैनागम और तत्त्वज्ञान सम्बन्धी पुस्तकों का भी मैंने उपयोग किया है। जिन-जिन पुस्तकों तथा विद्वान् मनीषियों की रचनाओं, कृतियों का प्रस्तुत लेखन विवेचन में किंचित् भी उपयोग हुआ है, उन सबके प्रति आभार प्रकट करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ । प्रस्तुत ग्रन्थ के सम्पादन, विवेचन, अनुवाद के गुरूतर कार्य में मुझे सर्वाधिक सहयोग आत्मीयबंधु श्रीचन्दजी सुराना 'सरस' एवं डॉ. बृजमोहन जैन से प्राप्त हुआ है। इन्होंने मेरी कल्पना को साकार रूप दिया । ग्रन्थ को सुन्दर एवं सारभूत बनाने में अपना बहुमूल्य समय तथा अथक श्रम दिया । यह कहना अत्युक्ति न होगी कि उनके सहयोग के बिना इस ग्रन्थ का इस रूप में पाठकों के समाने आना असम्भव ही था। आत्मीयबन्धु सुरानाजी का सहयोग सुन्दर, सूरचिपूर्ण और त्रुटि रहित मुद्रण में भी प्राप्त हुआ है। प्रुफ संशोधन आदि का सारा भार उन्होंने संभालकर मेरा कार्य सुगम कर दिया। इस द्वितीय संस्करण का प्रुफ शंशोधन का कार्य साध्वी अरहत ज्योतीजी म.सा., साध्वी हर्षप्रज्ञाजी म.सा.ने किया है , इस प्रुफ में, प्रिटींग मे कोई त्रुटी होतो हम क्षमायाचना करते है। सुधी पाठकों के कर-कमलों में प्रस्तुत ग्रन्थ देते हुए मुझे आत्मपरितोष है और यही मंगल कामना है कि प्रस्तुत ग्रन्थ का पठन-पाठनकरके पाठकगण जैन तत्त्वों का परिज्ञान प्राप्त करेंगे और मोक्षमार्ग की ओर गति-प्रगति करेंगे। इसी शुभ भावना के साथ -उपाध्याय केवल मुनि बाबा खादीधारी तपस्वी गणेशमल जी म. की पुण्य तिथि * * * Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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