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अधोलोक तथा मध्यलोक १३९ नरकों के विषय में तो वैज्ञानिक कोई खोज कर ही नहीं सके हैं ।
लोकस्थिति एवं आकार - जैन शास्त्र (भगवती सूत्र ७/१/४) में इस षड्द्रव्यात्मक लोक को 'सुप्रतिष्ठक संस्थान' वाला बताया गया है ।
इस लोक के आकार की संरचना इस प्रकार बताई गई हैं - एक सकोरा जमीन पर उल्टा रखा जाय, उस पर दूसरा सकोरा सीधा और उस पर तीसरा सकोरा उल्टा रखने पर जो आकृति बनती हैं, वह लोक का आकार हैं ।
__ यह लोक तीन भागों में विभाजित हैं - (१) ऊर्ध्वलोक, (२) मध्यलोक और (३) अधोलोक
(१) ऊर्ध्वलोक - इसका विस्तृत वर्णन चतुर्थ अध्याय के प्रारम्भ में किया गया है ।
(२) मध्यलोक - इसका विस्तृत वर्णन इसी अध्याय के सूत्र ७ तथा आगे के सूत्रों में किया गया है । .
(३) अधोलोक - इसमें सात नरक अवस्थित हैं ।
यह सम्पूर्ण लोक १४ राजू ऊँचा है तथा इसका घनफल ३४३ राजू प्रमाण है । इसमें नीचे से ऊपर तक स्तम्भाकार एक राजू चौड़ी त्रस नाड़ी ह । इस त्रस नाड़ी मे ही त्रस जीव रहते हैं, यहाँ स्थावरकाय के जीवों की भी अवस्थिति है । किन्तु त्रस नाड़ी के बाहर सिर्फ सूक्ष्म एकेन्द्रिय स्थावरकाय के जीव ही हैं और उसके आगे अनन्त अलोक हैं ।
लोक के जो अधोलोक आदि तीन विभाग हैं वे त्रस नाड़ी की अपेक्षा हैं तथा जम्बूद्वीप स्थित मेरुपर्वत को आधार मानकर इनका विभाग किया गया
इन तीनों में से ऊर्ध्वलोक ७ राजू ऊँचा, है मध्यलोक १८०० योजन का है (९०० योजन ऊपर और ९०० योजन मेरुपर्वत के मूल में नीचे) और शेष में अधोलोक है ।
मध्यलोक एक राजू चौड़ा है ।
ऊर्ध्वलोक पहले-दूसरे स्वर्ग तक तो १ राजू चौड़ा है और फिर बढ़ते बढ़ते पाँचवें देवलोक तक पाँच राजू चौड़ा हो गया । तदुपरान्त इसकी चौड़ाई कम होती गई है और अन्तिम भाग तक पहुंचते-पहुंचते इसकी चौड़ाई एक राजू ही रह गई है।
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