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________________ ( ११ ) तत्त्वार्थ सूत्र के टीकाकार पूज्यपाद, अकलंक आदि दिगम्बर विद्वानों ने इस पर विस्तृत टीकाएँ लिखीं । पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धी अकलंक की राजवार्तिक टीकाएँ प्रसिद्ध हैं । श्लोकवार्तिक नाम की भी इसकी एक विस्तृत टीका है। आचार्य उमास्वाति ने स्वयं इस पर स्वोपज्ञभाष्य लिखा, जो तत्त्वार्थाधिगम भाष्य के नाम से प्रसिद्ध है । इसमें स्वयं आचार्य ने सूत्रों का रहस्य प्रांजल संस्कृत गद्य में उद्घाटित किया है। प्रसिद्ध तर्कशिरोमणि आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने इस भाष्य को आधार बनाकर वृत्ति लिखी जो सिद्धसेनीया टीका के नाम से प्रसिद्ध हुई। दूसरी वृत्ति के रचयिता आचार्य हरिभ्रद हैं । इसे लघुवृत्ति कहा जाता है। हरिभद्र की वृति को उनके शिष्य यशोभद्र ने पूर्ण किया है। हिन्दी भाषा में पण्डित खूबचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री ने विवेचन लिखा है जिसे 'सभाष्य तत्त्वार्थाधिगम सूत्र' के नाम से रायचन्द जैन शास्त्र माला, बम्बई ने प्रकाशित किया । इस संस्करण में मूल सूत्र, उमास्वाति कृत स्वोपज्ञ सम्पूर्ण भाष्य तथा उसका सरल हिन्दी भाषा में अनुवाद दिया गया। साथ ही आवश्यकतानुसार सिद्धसेनीया और श्रुतसागरीयावृत्ति के मत टिप्पणक में दिये गये है, जिससे विषय स्पष्ट हो गया है। प्रज्ञाचक्षु पंडित प्रवर सुखलालजी संघवी का तत्त्वार्थ सूत्र विवेचन सहित भी प्रकाश में आया । इसमें मूल सूत्र, उनका हिन्दी अनुवाद और आवश्यकतानुसार विवेचन एवं स्पष्टीकरण किया गया है। प्रस्तुत पुस्तक को स्थानकवासी समाज ने बहुत आदर के साथ अपनाया है। इसी का अंग्रेजी अनुवाद भी छपा है। श्री वर्द्धमान स्थानकवासी श्रमण संघ के प्रथम आचार्य सम्राट पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज का ‘तत्त्वार्थ सूत्र - जेनागम समन्वय' नाम का ग्रन्थ अत्यन्त परिश्रमपूर्वक तैयार किया गया है। इसमें आचार्यश्री ने यह स्पष्ट सूचन कर दिया कि तत्त्वार्थ का कौनसा सूत्र किस आगम के पाठ के आधार पर रचा गया है। यह इस ग्रन्थ की बहुत बड़ी विशेषता है । ग्रन्थ में तत्त्वार्थ सूत्र के सूत्र, फिर उसका आगमोक्त आधार तथा आगम उद्धरण का सरल हिन्दी में अनुवाद दिया गया है । आचार्य सम्राट के इस सत् प्रयास ने तत्त्वार्थ सूत्र के महत्त्व व प्रामाणिकता को और भी सम्पुष्ट किया है। विद्वज्जगत में इसकी भूरि-भूरि सराहना हुई है. तत्त्वार्थ सूत्र की विशिष्ट स्थिती जैन वाङ्मय में तत्त्वार्थ सूत्र की विशिष्ट स्थिति और महत्व है। आगमों के बाद इस ग्रन्थ की मान्यता है। इसमें जैन दर्शन के अगाध सागर को मात्र ३४४ सूत्रों में भर देने का सफल प्रयास किया गया है। यह प्रयास गागर में सागर भरने जैसा है । ऐसा भी कहा जा सकता है कि जैन आगमों के विशाल सागर को तत्त्वार्थसूत्र रूपी एक बूँद में समाने का प्रयास किया गया है । ऐसा प्रयास आचार्य उमास्वाति जैसे गम्भीर आगमज्ञ और उद्भट विद्वान् द्वारा ही सम्पन्न हो सकता था । सामान्य ज्ञान के स्तर से तनिक ऊपर उठे हुए प्रत्येक व्यक्ति इस से लाभ उठा सकते हैं, उनको ज्ञान जिज्ञासा के लिए इसमें उन्हे यथेष्ट सामग्री प्राप्त हो सकती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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