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________________ १०८ तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय २ : सूत्र २६-३१ विग्रह गति सम्बन्धी विचारणा विग्रहगतौ कर्मयोगः | २६ | अनुश्रेणी गति : २७ । अविग्रहा जीवस्य । २८ । विग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुर्भ्यः । २९। एक समयोऽविग्रहः ।३०। एकं द्वौ त्रीन्वानाहारक : ।३१ । विग्रहगति में कार्मणयोग होता है । श्रेणी का अनुसरण करती हुई सरल-सीधी रेखा में गति होती है । मुक्त जीव की गति विग्रह ( मोड़ अथवा व्याघात) रहित होती है । संसारी जीव की चार समय से पहले-पहले होने वाली गति विग्रहवती ( विग्रह अथवा मोड़, व्याघात सहित ) होती है। ( किन्तु संसारीजीव की भी) एक समय वाली गति विग्रह रहित होती है । (विग्रह गति वाला जीव) एक, दो, तीन समय तक अनाहारक (आहार बिना लिये) रह सकता है । विवेचन प्रस्तुत छहों सूत्रों में उस समय की विचारणा की गई है जब एक जीव अपनी आयु पूरी होने पर शरीर त्याग कर दूसरी आयु तथा शरीर ग्रहण करने के लिए अन्य स्थल अथवा गति के लिए गमन करता है तथा वहाँ पहुंचता है । प्रथम गति से दूसरी गति में पहुचने के लिए जो गति ( गमन) जीव करता है, वह विग्रह गति कहलाती है । देशज भाषा में 'बाटे बहता' भी कहते हैं । विग्रह गति में जीव के कार्मणकाययोग रहता है । क्योंकि मनुष्य और तिर्यंच की अपेक्षा औदारिक शरीर, देव - नारकियों की अपेक्षा वैक्रिय शरीर आयु पूरी होते ही छूट जाता है । यहाँ कार्मणशरीर तथा कार्मणकाययोग का भेद समझलें । कार्मण शरीर तो जीव के साथ संलग्न रहता ही है, जीव अपनी योग शक्ति से कार्मण शरीर को कार्मण काययोग में परिणत कर लेता है क्योंकि एक स्थान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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