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________________ जीव-विचारणा १०९ से दूसरे स्थान को गमन करने के लिए योग शक्ति अपेक्षित होती है, उसी तरह जैसे कार को स्टार्ट करने के लिए बैटरी की जरूरत होती है । जीव की गति सरल रेखा में होती हैं । यह सूत्र प्रमुख रूप से सिद्ध गति प्राप्त करने वाले जीवों की अपेक्षा से हैं; क्योंकि जिस स्थान पर उनका शरीर छूटता है, वहीं से सीधा ऊपर की ओर जीव गमन करके सिद्धशिला से ऊपर जा विराजता है । यही कारण है कि मनुष्य क्षेत्र का ४५ लाख योजन का विस्तार माना है तो सिद्धशिला की भी ४५ लाख योजन का विस्तार है ताकि जीव सीधी गति से वहाँ पहुंच सके । किन्तु मुक्त जीवों की अपेक्षा से यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इनके कार्मण काययोग नहीं होता, क्योंकि कर्मों का तो नाश हो ही चुका है, फिर कार्मणशरीर तथा कार्मणकाययोग होने का प्रश्न ही नही उठता । इनकी ऊर्ध्वगति का हेतु आत्मा की योग शक्ति है । जिस तरह अंडी का बीज ऊपरी आवरण फटते ही एकदम उपरी की ओर गति करता है, उसी प्रकार जीव भी कर्मों का सम्पूर्ण आवरण हटते ही शीघ्र गति से ऊर्ध्वदिशा में गमन करता हुआ एक समय मात्र में सिद्धशिला पर जा विराजता है । संसारी जीव की गति विग्रहसहित और विग्रहरहित दोनों प्रकार की होती हैं । उदाहरणार्थ - कोई पंचेन्द्रिय तिर्यंच अथवा मनुष्य देवगति में उत्पन्न होता है और उपपातशैया ठीक उस स्थल के ऊपर है जहाँ तिर्यक्लोक में उस जीव ने आयु पूर्ण किया है, तो उसकी गति ऋजु अथवा सरल होगी, उसे कोई भी मोड़ (turn) नहीं लेना पड़ेगा । . किन्तु यदि स्थिति ऐसी नहीं हुई तो उसे मोड़ लेना पडेगा और उसकी गति (गमनक्रिया) विग्रह सहित मोड़ वाली हो जायेगी । किन्तु यह मोड़ अधिक से अधिक तीन (नरक गति में उत्पन्न होनेवाले जीव की अपेक्षा) हो सकते हैं, चौथे समय तो वह जीव अवश्य ही नया जन्म ग्रहण कर लेगा । इसी अपेक्षा से जीव अधिक से अधिक तीन समय तक अनाहारक रह सकता है (क्योंकि विग्रह गति में जीव आहार नहीं करता) और चौथे समय तो जन्म लेते ही अवश्य आहार ग्रहण कर लेता है । यहाँ आहार और भोजन को एकार्थवाची नहीं समझना चाहिए । आहार और भोजन में भेद है । जन्म लेते ही जीव सर्वप्रथम आहार ग्रहण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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