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________________ जीव-विचारणा १०७ ( गौतम ! इनकी अनुश्रेणी गति ही होती हैं, विश्रेणीगति नहीं होती । इसी प्रकार वैमानिकों तक अनुश्रेणी गति होती है ।) उज्जुसेढीपडिवन्ने अफुसमाणगई उड्ढं एक्क समएणं अविग्गहेणं गंता सागारोवउते सिज्झिहि । औपपातिक सूत्र, सिद्धाधिकार, सूत्र ४३ (आकाश प्रदेशों की सरल पंक्ति को प्राप्त होकर, गति करते हुए भी किसी का स्पर्श न करते हुए, बिना मोड़ लिए, साकार उपयोग (ज्ञानोपयोग ) से युक्त एक समय में ऊपर को जाकर सिद्ध हो जाता है ।) - णेरइयाणं उक्कोसेणं तिसमतीतेणं विग्गहं उववज्जंति एगिंदिवज्जं जाव वेमाणियाणं स्थानांग, स्थान ३, उ. ४ सूत्र २२५ गोयमा ! एगसमइएण वा दिसमइएण वा तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जति भगवती, श. ३४, उ. १, सूत्र ८५१ (नारकी जीव अधिक से अधिक तीन समय विग्रह गति में लेकर (नरक में) उत्पन्न होते हैं । गौतम ! एक समय में अथवा दो समय में अथवा तीन समय में अथवा चार समय में मोड़ लेकर उत्पन्न होते हैं ।) · एगसंमइयो विग्गहो नत्थि ! - भगवती श. ३४, उ. १, सूत्र ८५१ ( एक समय वाले को मोड़ नहीं लेना पड़ता । ) गोयमा ! अनाहारए दुविहे पण्णत्ते, तं जहाछउमत्थ' 'अनाहाराए, केवली अणाहारए गोयमा ! अजहण्णमनुक्कोसेणं तिण्णिसमया । Jain Education International अनाहारक और (२) केवली अनाहारक ।... ( गौतम ! अनाहारक दो प्रकार के कहे गये हैं ... प्रज्ञापना पद १८, द्वार १४ (१) छद्मस्थ अधिक से अधिक जीव तीन समय तक अनाहारक रह सकता ह । ) For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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