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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व वस्तुतः, वे सभी वस्तुएं, जिनमें फफूंद (खमीर) या फरमन्टेशन स्वभावतः उत्पन्न होती हैं, अभक्ष्य हैं। 110 बड़, पीपल, उंबर, गूलर और अंजीर - ये पांच उदम्बर फल कहे गये हैं, इन फलों के भीतर सकायिक असंख्यात जीव निवास करते हैं । इन फलों को तोड़ने पर ये जीव सैन्यदल के समान अन्दर से निकलकर बाहर आते दिखाई देते हैं, वे प्राणी विकलेन्द्रिय होते हैं । इन फलों को सुखाकर खाने पर, अथवा गीले ही पक्व या अर्द्धपक्व, कैसे भी खाने पर वे जीव मरण को तो प्राप्त होते ही हैं, परन्तु इससे द्रव्यहिंसा का दोष भी लगता है। इन फलों को तोड़कर देखने पर इन्हें कोई भी नहीं खा सकता है, क्योंकि असंख्यात जीव राशि- उनमें से निकलने लगती है और उनमें प्रतिसमय जीव उत्पन्न होते और मरण को प्राप्त होते रहते हैं । उन मृतक जीवों का कलेवर भी उन्हीं में रहता है । अतः, इन पांच प्रकार के फलों को भी मांसभक्षण सदृश अभक्ष्य जानकर इनका त्याग करना चाहिए ।' 111 बहुबीज, बैंगन, अज्ञात फल, तुच्छ फल एवं अनन्तकाय भी अभक्ष्य हैं। जिसमें बीज अधिक हों, जैसे - खसखस, अंजीर आदि, इनमें प्रतिबीज एक जीव होने से इनको खाना • अधिक जीवहिंसा का कारण है। बैंगन बहुबीज, निद्राकारक व कामोद्दीपक होने से अभक्ष्य है। जिन पुष्प - फलों को कोई न जानता हो, उन्हें भी कदापि नहीं खाना चाहिए, क्योंकि वे मृत्यु का कारण भी हो सकते हैं। जिन फल, पुष्प व पत्तों में खाना थोड़ा और फेंकना अधिक हो, वे तुच्छ फल कहलाते हैं, जैसे- सीताफल, बिल्व आदि फल, अरणि, महुआ, शिग्रु आदि के पुष्प वर्षाकाल की छोटे-छोटे कंथुर आदि से युक्त भाजी आदि भी अभक्ष्य हैं। ये सभी अभक्ष्य अनन्तकाय एवं अनन्त जीवों के पिण्ड होने से अभक्ष्य हैं। इनके अतिरिक्त कंदमूल भी अभक्ष्य हैं, क्योंकि उनमें एक ही शरीर में अनेक जीव रहते हैं । वे सभी साधारण वनस्पति कहलाते हैं। आलू, रतालू, अरबी, शकरकंद, अदरख 112 110 रोहिकौदनापुपं पुष्पित नवनीतं च । संघानकंचकाचिका मधुमिवैव दोषानि ।। उपासकाध्ययन, अध्याय-4, गाथा 31 111 निग्रोध पिप्पल फल्गु उदम्बर पाकर फलानि च भक्षणे । प्रभवति नित्य हिंसा जीवानां कर्मकोषं च ।। 32 ।। फलाना गर्भे खलु जातं मृतं नित्य त्रसजीवाः । आलोक्यते कलेवर मास्वादनेऽपि भवति हिंसा ।। 33 ।। उपासकाध्ययन, अध्याय-4, गाथा - 32, 33 जीवविचार प्रकरण, गाथा 8 112 85 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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