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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
शरीर वाले होते हैं, जो शहद निकालते समय मर जाते हैं और जब उनके शरीर का रस निकल जाता है, तब शहद भी मांस के समान अभक्ष्य हो जाता है। शहद में सूक्ष्म निगोद या जीव, जिनका शरीर भी रसरूप होता है, निरंतर उत्पन्न होते रहते हैं, जो स्पर्श करने मात्र से मरण को प्राप्त हो जाते हैं। औषधि के साथ, अथवा औषधि के रूप में, शहद का प्रयोग करने पर भी जीवों की विराधनारूप हिंसा अवश्य होती है। शहद खाने पर रसनाइन्द्रिय की लालसा एवं कामुकता बढ़ जाती है। इस प्रकार, भावविकृति के कारण भी शहद अभक्ष्य है, इसलिए अहिंसा-धर्म के धारक को मधु का प्रयोग कभी नहीं करना चाहिए।109
बासी रोटी, पूड़ी, ब्रेड, पापड़, मालपुआ, खीर, दाल, भात आदि खाद्य-पदार्थों में जब फफंद आ जाती है, तब उनमें एकेन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति हो जाने से वे अभक्ष्य हो जाती हैं। मक्खन, जो अड़तालीस मिनट पूर्व निकाला गया है, उसमें भी असंख्यात जीवों की उत्पत्ति हो जाती है। अतः ऐसे पदार्थ सेवन करने योग्य नहीं हैं। मक्खन को छाछ में से निकालकर, तुरंत तपाकर घी बना लेना चाहिए, नहीं तो वह मक्खन मांस खाने के समान माना गया है, क्योंकि उसमें जीवोत्पत्ति (फरमन्टेन्शन) होता
किसी भी पदार्थ का अचार, चाहे आम का हो अथवा नींबू का, अथवा अन्य किसी भी प्रकार का, जो नमक, मिर्च, जीरा, धनिया, राई, अजवाइन, सरसों आदि डालकर तैयार किया है, चौबीस घन्टे के बाद उसमें भी अनेक जीवोत्पत्ति हो जाती है, तब उसमें विशेष स्वाद आने लगता है, अचार या मुरब्बा जितना पुराना होता जाता है, उतना ही रुचिकर लगने लगता है, चूंकि विभिन्न प्रकार की असंख्यात जीवराशि उसमें उत्पन्न होती रहती हैं और उसी में मरण को प्राप्त होती रहती हैं, अतः अहिंसक साधक को इनका सेवन नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार से, कांजी-बड़ा आदि भी असंख्यात जीवराशियों का पिंड होने से अभक्ष्य है।
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भक्षणे भवति हिंसा नित्यमुद्भवंति यज्जीवराशिः। स्पर्शनेऽपि मृयन्ते सूक्ष्मनिगोदरसजदेहिनः । ।29 ।। अगदेऽपि न सेवितव्यः हिंसाभवति सेवन काले। भावेविकृतारवलु प्रदातासुखमाभाति कदा।। 30||-उपासकाध्ययन, भाग-4, गाथा-29, 30.
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