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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
प्रदान करने वाले हैं, विवेक-बुद्धि को नष्ट करने वाले हैं, या विवेक-बुद्धि पर परदा डाल देने वाले हैं। 106 वे सभी मद्य के अन्तर्गत आते हैं। मादक पदार्थों का सेवन नशे की अवस्था का प्रमुख कारण है, जिसमें सेवन करने वाला अपना होश खो देता है, इसलिए भांग, गांजा, चरस, अफीम, सिगरेट, बीड़ी, तम्बाकू तथा ताड़ी, व्हिस्की, ब्रांडी, शैम्पेन, जिन, रम, पोर्ट, बीयर आदि देशी और विदेशी शराब- ये सभी मादक पदार्थ हैं, जो अभक्ष्य हैं, साथ ही मद्य इसलिए भी अभक्ष्य है, क्योंकि वह वस्तुओं को सड़ाकर बनाई जाती है।
मदिरा बनाने के लिए सड़ाने की प्रक्रिया हिंसाजनक है। शर्करायुक्त पदार्थ, जैसे- अंगूर, महुआ, जौ, गेहूं, मक्का, गुड़ आदि वस्तुओं को सड़ाया जाता है, जिसमें अनन्त एकेन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति हो जाती है। तत्पश्चात्, उस सड़े हुए पदार्थ से शराब बनाई जाती है, जो अभक्ष्य ही होती है। स्कन्दपुराणकार ने मद्यपान को सभी पापों से महान् पाप माना है। उन्होंने कहा है - ‘एक ओर तराजू के पलड़े में वेदों को रख दो, दूसरी ओर ब्रह्मचर्य, तो दोनों बराबर होंगे। एक ओर संसार के सारे पापों को रख दो तथा दूसरी ओर मदिरापान, तो दोनों बराबर होंगे। इसी प्रकार, कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्यजी ने लिखा है – 'आग की नन्ही सी चिनगारी विशालकाय घास के ढेर को नष्ट कर देती है, वैसे ही मदिरापान से विवेक, संयम, ज्ञान, सत्य, शौच, क्षमा आदि सभी सद्गुण नष्ट हो जाते हैं। 108 कुरान शरीफ में कहा गया है- “ए ईमानवाले लोगों शराब, जुआ आदि नापाक हैं। ये शैतान के हथियार हैं, इनसे दूर रहोगे, तो ही तुम्हें जन्नत मिलेगी।"
इसी प्रकार, सभी धर्म-प्रवर्तक दार्शनिक और चिन्तकों ने मदिरापान की निन्दा की है और उसे पाप का मूल माना है, इसलिए मदिरा को अभक्ष्य जानकर उसका त्याग करना चाहिए।
मधु (शहद) मधुमक्खियों की जूठन, उगलन या वमन है। मधुमक्खियों के छत्तों में अनेक सम्मुर्छन अण्डे रहते हैं। वे सब कोमल
106 बुद्धि लुम्पति यद् द्रव्यं मदकारि तदुच्यते। -वसुनन्दी श्रावकाचार -85 107 एकतश्चतुरोवेदा, ब्रह्मचर्य तथैकतः ।।
एकतः सर्वपापानि मद्यपानं तथैकतः ।। -स्कन्दपुराण विवेकः संयमो ज्ञानं, सत्यं शौचं दया क्षमा। मद्यातन प्रलीयते सर्व, तण्या वहिनकणादिव।। -योगशास्त्र -3/16
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