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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व राजसिक-आहार हमारे चित्त की वृत्तियों को उग्र बनानेवाला होता है। तामसिक-आहार का अधिक प्रयोग व्यक्ति को सुस्त व निरुत्साही बनाता है, पर सात्त्विक आहार हमारे चिन्तन को उदार, सहनशील, विकसित और प्रमुदित बनाता है। ____ अधिक चटपटे और मिर्च-मसालेदार आहार करनेवाला व्यक्ति अधिकतर क्रोधी स्वभाव वाला हो जाता है। ऐसे आहार से उसकी मनोवृत्ति कषाययुक्त हो जाती है, अत: अधिक चटपटे तामसिक-आहार का त्याग करना चाहिए। . अधिक चिकनाईयुक्त गरिष्ठ आहार करने से शरीर का मोटापा बढ़ने लगता है। अधिक मोटापा अपने-आप में सभी बीमारियों का घर कहा गया है। अतः, शरीर को चुस्त रखने के लिए जितनी मात्रा में शरीर खाने को पचा सके, उतना ही आहार करना चाहिए। आहार की गरिष्ठता नहीं, आहार की संतुलितता उत्तम स्वास्थ्य के लिए कारणभूत होती है। सात्त्विक आहार से स्वास्थ्य के संरक्षण के साथ-साथ मन की शान्ति, चित्त की प्रसन्नता एवं सहनशीलता बनी रहती है। श्रीमद् भगवद्गीता में कहा गया है – 'योग उसी व्यक्ति को दुःखमुक्त करता है, जिसका आहार-विहार, सोना-जागना आदि कार्य नियमित होते हैं।' भगवान महावीर ने बार-बार हमारे विवेक को जगाया है -"जवणट्ठाए भुजिज्जा", "जीवन-यात्रा को सुखपूर्वक चलाने के लिए आहार करो।" "मोक्ख साहण हेउस्स साहुदेहस्य धारणा।"97 'शरीर धारण का पवित्र उद्देश्य है- मोक्ष-साधना। यदि आहार में विवेक न रखा गया, तो वह मोक्ष का साधन देह रोग, पीड़ा और क्लेश का घर बनने लगेगा, अतः आहार को ग्रहण करने के पूर्व आहार-विवेक अति आवश्यक है। “ऐसा हित-मित भोजन करना चाहिए, जो जीवन-यात्रा एवं संयम यात्रा के लिए उपयोगी हो सके और जिससे न किसी प्रकार का विभ्रम हो और न धर्म की भ्रंसना।।98 97 दशवैकालिकसूत्र, गाथा 5/92 तहा भोत्तत्वं जहा से जाय माता य भवति नय य भवति विभगों, न भंसणा य धम्मस्स। प्रश्नव्याकरणसूत्र 214 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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