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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व ___ जो मनुष्य हितभोजी, मितभोजी एवं अल्पभोजी हैं, उनको वैद्यों की चिकित्सा की आवश्यकता नहीं होती। वे अपने-आप ही अपने चिकित्सक होते हैं।99 जो काल, क्षेत्र, मात्रा, आत्मा का हित, द्रव्य की गुरुता-लघुता एवं अपने बल का विचार कर भोजन करते हैं, उन्हें दवा की जरूरत नहीं रहती। 100 कुछ वस्तुएं निश्चित समय में खाना अमृततुल्य है, जैसे-ज्येष्ठ और आषाढ़ मास में नमक, श्रावण-भाद्रपद मास में शुद्ध जल, आश्विन-कार्तिक में गाय का दूध, मार्गशीर्ष पौष में आँवले का रस, माघ–फाल्गुन में घी और चैत्र-वैशाख में गुड़ अमृत के समान है।" श्रीखंड या गोरस (कच्चा दूध, दही, छाछ) के साथ खमण ढोकला, मूंग मोगर की दाल, भुजिया, कढ़ी, दाल वगैरह नहीं खाना चाहिए। संबोधप्रकरण में कहा गया है - सर्व देश तथा सर्वकाल में सर्व द्विदलयुक्त कच्चे गोरस में पंचेन्द्रिय तथा निगोद के जीव उत्पन्न होते हैं, अर्थात् उनमें फरमन्टेशन (सड़न) उत्पन्न होती है। ___ आइस्क्रीम, चाकलेट, बिस्किट, शीतलपेय(कोल्डड्रिंक्स) जैसे कोकाकोला आदि, जंकफूड, शराब-ये सभी मानसिक, शारीरिक और धार्मिक-दृष्टि से अखाद्य हैं। उपर्युक्त सभी वस्तुओं में हड्डियों का चूर्ण चर्बी आदि मिलाया जाता है। इनमें प्रयुक्त ऐसेन्स, जो कई रासायनिक प्रक्रियाओं से निर्मित होते हैं, स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं, अतः विवेकपूर्वक इन खाद्य-पदार्थों का त्याग करना चाहिए। व्यसन, अर्थात् बुरी आदत, जो इस भव और पर भव में दुःख देने वाली है, जिसमें पान, गुटखा, सुपारी, पान-मसाला, तम्बाकू आदि खादिम पदार्थ हैं, वे भी शरीर को नुकसान पहुंचाते हैं। ये कैंसर, टी.बी., दमा और कई असाध्य रोगों को निमंत्रित करते हैं, इसलिए इनका त्याग करना चाहिए। सिगरेट, बीड़ी, हुक्का आदि के मादक धुएं से इनका सेवन करने "हियाहारा मियाहारा, अप्पाहारा य जे नरा। 'न ते विज्जा तिगिच्छति, अप्पाणं ते तिमिच्छगा।।- ओघनियुक्ति-578, आचार्य भद्रबाहु स्वामी 100 कालं, क्षेत्रं, मात्रां, स्वात्मयं द्रव्य-गुरूलाधव स्वबलम ज्ञात्वा योऽभ्यवहार्य, भुड्के किं भेष जैस्तस्य ।।- प्रशमरति 137 आ. उमास्वाति 101 वर्षास् लवणममृतं । शरदि जलं गोपयश्च"। हेमन्त शिशिरे चामलकरसं। घृतं वसन्ते गुड़ श्चान्ते। - कल्पसूत्र, हिन्दी अनुवाद श्री आनन्दसागर सूरीश्वर जी म.सा., पृ. 170 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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