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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
आहार का स्वाद एवं शरीर-संरक्षण -
जीवन-यात्रा के लिए आहार आवश्यक है। यदि मानव आहार को ग्रहण न करे, तो वह अधिक समय तक जीवन जी नहीं सकता है। अहिंसा की साधना के लिए; सत्य, क्षमा आदि व्रतों के पालन हेतु मानव का जीवित रहना आवश्यक है और जीवित रहने के लिए आहार आवश्यक है, परन्तु आहार कैसा, कब, कितना और किसलिए करना चाहिए, यह विवेक रखना भी आवश्यक है। मुख्यतः, आहार के संबंध में तीन प्रकार की मान्यताएं देखी गई हैं -
1. आहार के लिए जीवन । 2. जीवन जीने के लिए या स्वास्थ्य के लिए आहार। 3. धर्म-साधना के लिए आहार।
सामान्य मानवों का मन्तव्य है कि आहार बहुत ही स्वादिष्ट होना चाहिए। वे अच्छे-से-अच्छे मिष्ठान्न, मिर्च-मसाले, अचार-मुरब्बे युक्त स्वादिष्ट आहार को ग्रहण करने में आनन्द की अनुभूति करते हैं, अतः उनका जीवन आहार के लिए ही है।
दूसरे प्रकार के व्यक्तियों का यह चिन्तन है कि आहार में स्वाद नहीं स्वास्थ्य प्रमुख होना चाहिए, जो शरीर को हृष्ट-पुष्ट बनाए। फिर वह आहार चाहे उबला हुआ, कच्चा, मिर्च-मसाले से रहित, कैसा भी क्यों न हो। मात्र स्वास्थ्य के लिए ही आहार करना चाहिए।
तीसरे प्रकार के आत्मार्थी साधकों का मन्तव्य है कि आहार के लिए जीवन नहीं, किन्तु जीवन के लिए आहार है, इसलिए आहार हितकारी, मितकारी और पथ्यकारी हो, स्वास्थ्य और धर्म-दोनों ही दृष्टि से लाभकारी हो। पाश्चात्य संस्कृति भी इस बात का समर्थन करती है - 'Sound mind lives in a sound body'. स्वस्थ्य शरीर में ही स्वस्थ्य मन का निवास होता है।
गीता में आहार के तीन प्रकार बताए हैं - 1. तामसिक-आहार, 2. राजसिक-आहार 3. सात्त्विक-आहार
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आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः। - गीता 16/7
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