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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
तीव्र आहार-संज्ञा वाला जीव -
1. द्रव्य से- वह भक्ष्य-अभक्ष्य का विचार नहीं करता है, मात्र ___ आहार-संज्ञा की पूर्ति के लिए खाता चला जाता है।
2. क्षेत्र से- उसे क्षेत्र का भी भान नहीं रहता, मंदिर और अन्य
पवित्र स्थानों पर भी खा लेता है।
3. काल से- आहार-संज्ञा अति तीव्र होने के कारण वह रात और .
दिन के समय का ध्यान नहीं रखता है।
4. भाव से- अज्ञान-भाव एवं तीव्र क्षुधावेदनीय-कर्म के उदय से यह
संज्ञा उत्पन्न होती है। विभिन्न जीव-योनियों में आहार का स्वरूप -
जिससे धर्म की साधना हो सकती हो, उस शरीर की प्रयत्नपूर्वक रक्षा करना चाहिए। आगम-शास्त्र में ऐसा कहा गया है – “रत्नत्रयरूपी धर्म का आद्य साधन शरीर है, इसलिए भोजन, पान, शयन आदि के द्वारा शरीर की रक्षा करना चाहिए। प्रत्येक प्राणी अपने शरीर का संरक्षण करने के लिए योग्य पुद्गल अर्थात् आहार को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। चौरासी लाख जीव-योनियों में सभी जीवों के आहार में विभिन्नताएं पाई जाती हैं। कोई घास खाता है, तो कोई मांस, कोई जल ग्रहण करता है, तो कोई मल, कोई दाना चुगता है, तो कोई अन्न, इसलिए विभिन्न जीवयोनियों में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से आहार में भी भिन्नता पाई जाती है। समस्त सांसारिक-जीवों को भवधारणीय शरीर की अपेक्षा से दो भागों में विभक्त किया गया है -
1. वैक्रिय-शरीर,
2. औदारिक-शरीर।
नरक और देव, जो नियमतः वैक्रियशरीरधारी हैं, वे वैक्रियशरीर के परिपोषण योग्य जिन पुद्गलों का आहार करते हैं, वे पुद्गल अचित् होते हैं, इसलिए आगमों में कहा गया है कि नारकीय, भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक- ये सभी एकान्ततः अचित्ताहारी हैं। इनके
91 अनगारधर्मामृत, अधिकार - 7/9
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