________________
जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
11
क्षुधावेदनीय-कर्म के उदय से आहार के पुद्गलों को ग्रहण करने की अभिलाषा आहार-संज्ञा है। प्रत्येक जीव आहार को ग्रहण करता है, किन्तु आहार को ग्रहण करने की तीव्रता एवं मंदता सभी जीवों में अलग-अलग प्रकार से पाई जाती है। इसी तीव्रता एवं मंदता को ध्यान में रखते हुए आहार संज्ञा के चार विकल्प (भंग) कहे गये हैं -
1. आहार करते भी हैं और आहार-संज्ञा भी है - सामान्य
संसारी-प्राणी । 2. आहार करते हैं, परन्तु आहार-संज्ञा नहीं है - सयोगी-केवली। 3. आहार नहीं करते हैं, परन्तु आहार-संज्ञा हैं – विग्रहगति के जीव । 4. आहार भी नहीं करते हैं और आहार-संज्ञा भी नही है - मुक्त
जीव।
द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से आहार-संज्ञा की विवेचना इस प्रकार है
1. द्रव्य से - नारक, तिर्यंच एवं देवगति के सभी जीवों तथा
आहार-संज्ञा का परित्याग करने वाले साधक मनुष्य के अतिरिक्त
सभी मनुष्यों में द्रव्य से आहार-संज्ञा है। 2. क्षेत्र से - तीनों लोकों में आहार-संज्ञा पायी जाती है। 3. काल से- सभी जीवों की अपेक्षा से आहार-संज्ञा अनादि अनंत
4. भाव से - मोहनीय सहवेदनीय-कर्म के उदय से आहार-संज्ञा
उत्पन्न होती है।
तीव्र, मध्य एवं मंदता के अनुसार आहार-संज्ञा को तीन प्रकार से विभाजित कर सकते हैं -
1. तीव्र- तन्दुल मत्स्य, 2. मध्यम- मनुष्य देव, 3. मंद- साधक जीव।
1. वण्णमंते
2. गंधमते 3. रसमंते 4. फासमंते
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org