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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
अतिरिक्त एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के तिर्यंच और मनुष्य, जो औदारिक-शरीरधारी हैं, वे औदारिक-शरीर के परिपोषण- योग्य पुद्गलों का आहार करते हैं। वे तीनों ही प्रकार के आहार, अर्थात् सचिताहार, अचिताहार और मिश्राहार करते हैं।
नरक के जीवों का आहार -
नरक के जीवों का आहार दो प्रकार का है -
1. आभोग-निवर्तित 2. अनाभोग-निवर्तित
इच्छापूर्वक किया हुआ आहार आभोग-निवर्तित एवं अनिच्छापूर्वक किया हुआ आहार अनाभोग-निवर्तित कहलाता है।
अनाभोग-निवर्तित आहार की प्रवृत्ति प्रतिसमय नरक के जीवों में उत्पन्न होती रहती है, किन्तु जो आभोग-निवर्तित (उपयोगपूर्वक किया हुआ) आहार है, उस आहार की अभिलाषा असंख्यात समय के अन्तर्मुहूर्त में उत्पन्न होती है। अनाभोग-निवर्तित आहार भवपर्यन्त प्रतिसमय निरन्तर होता रहता है। यह आहार ‘ओजाहार आदि के रूप में होता है। आभोग-निवर्तित आहार की इच्छा असंख्यात समय–परिमाण अन्तर्मुहूर्त में उत्पन्न होती है। मैं आहार करूँ ? इस प्रकार की अभिलाषा एक अन्तर्मुहूर्त के अंदर पैदा हो जाती है। यही कारण है कि नारकों की आहार की इच्छा अन्तर्मुहूर्त की कही गई है। वे नारक जीव अनन्त-प्रदेशी पुद्गलों का आहार करते हैं। सामान्यतः, नारक जीव वर्ण की अपेक्षा से काले और नीले वर्ण वाले, रस की अपेक्षा से तिक्त और कट् रस वाले, गन्ध की अपेक्षा से दुर्गन्ध वाले तथा स्पर्श की अपेक्षा से कर्कश, गुरु, शीत .और रूक्ष स्पर्श वाले अशुभ द्रव्यों का आहार करते हैं। यह स्पष्ट है कि मिथ्यादृष्टि नारक जीव ही उक्त कृष्णवर्ण आदि द्रव्यों का आहार करते हैं, किन्तु जो नारक आगामी भव में तीर्थंकर आदि होने वाले हैं, वे ऐसे द्रव्यों का आहार नहीं करते हैं।
भवनपति आदि देवों का आहार -
92 प्रज्ञापनासूत्र 28, आहारपद, पृ. 102
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