SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 69 भी प्रकार के आहार को करने वाले जीव को आहारक कहते हैं। उक्त तीन प्रकार के आहारों (ओज, लोम और कवल) में से किसी भी प्रकार के आहार को ग्रहण न करने वाले जीव अनाहारक कहलाते हैं। सभी अपर्याप्तक-जीव ओजाहार करते हैं, जबकि पर्याप्तक-जीव लोमाहार या प्रक्षेपाहार ग्रहण करते हैं। देव, नारक और एकेन्द्रिय जीवों में प्रक्षेपाहार (कवलाहार) नहीं होता है, शेष द्वीन्द्रिय से लेकर सयोगी-केवली तक प्रक्षेपाहार करते हैं, किन्तु दिगम्बर–मान्यतानुसार केवली प्रक्षेपाहार नहीं करते, केवली को छोड़कर शेष जीव विग्रहगति में एक या दो समय तक अनाहारक रहते हैं, किन्तु केवली-समुद्घात करते समय जीव तीन समय तक अनाहारक होते हैं। शैलेशी अवस्था को प्राप्त केवली अर्द्ध अन्तर्मुहूर्त तक अनाहारक होते हैं। सिद्ध जीव सादि-अनन्तकाल तक अनाहारक होते एकेन्द्रिय-जीव को मुंह का अभाव होने से कवलाहार नहीं होता और देवता और नारकी-जीव वैक्रिय-शरीरधारी होने से स्वभावतः कवलाहारी नहीं होते हैं। देवता अपर्याप्त अवस्था में ओजाहारी और पर्याप्त अवस्था में मनःआहारी होते हैं। विचार एवं चिन्तन मात्र से सभी इन्द्रियों को आलादजनक मनोज्ञ-पुद्गलों को आत्मसात् करते हैं। नारकी अपर्याप्त अवस्था में ओजाहारी और पर्याप्त अवस्था में लोमाहारी होते हैं, किन्तु वे देवों की तरह मनाहारी नहीं होते। मन-आहारी का अर्थ है -तथाविध शक्ति द्वारा अपने शरीर को पुष्ट करने वाले पुद्गलों को मन से ग्रहण कर आत्मतृप्ति एवं आत्म-संतोष प्राप्त करना। नरक के जीवों में अशुभ-कर्म के उदय से ऐसी शक्ति नहीं होती है, परंतु प्रज्ञापनासूत्र में नरक के जीवों के आहार भी निम्न दो प्रकार से बताए हैं - 4. 100 ओजोलोमप्रक्षेपाहाराणामन्यतममाहारमाहारयतीत्याहारकः । इतर अनाहारकः । --चतुर्थ कर्मग्रन्थ, स्वोपज्ञ टीका, पृ. 142 87 ओयाहारा जीवा सव्वे अपजत्तगा मुणेयवा। पज्जत्तगा य लोमे पक्खे हुंति भइयव्वा । -प्रवचन सारोद्धार, गाथा 1181 गोयमा! णेरइयाणं आहारे दुविहे पण्णते, तं जहा - (1) आभोगणिव्वतिए य (2) अणाभोगणिव्वत्तिए य तत्थ णं जे से अणाभोगणित्वतिए, से णं अणुसमयमविरहिए आहारट्टे समुप्पज्जइ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy