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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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भी प्रकार के आहार को करने वाले जीव को आहारक कहते हैं। उक्त तीन प्रकार के आहारों (ओज, लोम और कवल) में से किसी भी प्रकार के आहार को ग्रहण न करने वाले जीव अनाहारक कहलाते हैं।
सभी अपर्याप्तक-जीव ओजाहार करते हैं, जबकि पर्याप्तक-जीव लोमाहार या प्रक्षेपाहार ग्रहण करते हैं। देव, नारक और एकेन्द्रिय जीवों में प्रक्षेपाहार (कवलाहार) नहीं होता है, शेष द्वीन्द्रिय से लेकर सयोगी-केवली तक प्रक्षेपाहार करते हैं, किन्तु दिगम्बर–मान्यतानुसार केवली प्रक्षेपाहार नहीं करते, केवली को छोड़कर शेष जीव विग्रहगति में एक या दो समय तक अनाहारक रहते हैं, किन्तु केवली-समुद्घात करते समय जीव तीन समय तक अनाहारक होते हैं। शैलेशी अवस्था को प्राप्त केवली अर्द्ध अन्तर्मुहूर्त तक अनाहारक होते हैं। सिद्ध जीव सादि-अनन्तकाल तक अनाहारक होते
एकेन्द्रिय-जीव को मुंह का अभाव होने से कवलाहार नहीं होता और देवता और नारकी-जीव वैक्रिय-शरीरधारी होने से स्वभावतः कवलाहारी नहीं होते हैं।
देवता अपर्याप्त अवस्था में ओजाहारी और पर्याप्त अवस्था में मनःआहारी होते हैं। विचार एवं चिन्तन मात्र से सभी इन्द्रियों को आलादजनक मनोज्ञ-पुद्गलों को आत्मसात् करते हैं। नारकी अपर्याप्त अवस्था में ओजाहारी और पर्याप्त अवस्था में लोमाहारी होते हैं, किन्तु वे देवों की तरह मनाहारी नहीं होते। मन-आहारी का अर्थ है -तथाविध शक्ति द्वारा अपने शरीर को पुष्ट करने वाले पुद्गलों को मन से ग्रहण कर आत्मतृप्ति एवं आत्म-संतोष प्राप्त करना। नरक के जीवों में अशुभ-कर्म के उदय से ऐसी शक्ति नहीं होती है, परंतु प्रज्ञापनासूत्र में नरक के जीवों के आहार भी निम्न दो प्रकार से बताए हैं -
4.
100 ओजोलोमप्रक्षेपाहाराणामन्यतममाहारमाहारयतीत्याहारकः । इतर अनाहारकः ।
--चतुर्थ कर्मग्रन्थ, स्वोपज्ञ टीका, पृ. 142 87 ओयाहारा जीवा सव्वे अपजत्तगा मुणेयवा।
पज्जत्तगा य लोमे पक्खे हुंति भइयव्वा । -प्रवचन सारोद्धार, गाथा 1181 गोयमा! णेरइयाणं आहारे दुविहे पण्णते, तं जहा - (1) आभोगणिव्वतिए य (2) अणाभोगणिव्वत्तिए य तत्थ णं जे से अणाभोगणित्वतिए, से णं अणुसमयमविरहिए आहारट्टे समुप्पज्जइ
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