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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व रचना के लिए जिन कर्मवर्गणाओं के पुद्गलों का ग्रहण किया जाता है, वे नोकर्माहार हैं। केवली भगवान् नोकर्माहार करते हैं। ___ 2. कर्माहार – कर्मवर्गणा के पुदगलों को ग्रहण करना कर्माहार है। जीव के भाव और परिणामों द्वारा प्रतिक्षण कर्मवर्गणाओं को ग्रहण करना कर्माहार कहलाता है। 3. कवलाहार/प्रक्षेपाहार- मुख के माध्यम से, आहार ग्रहण करना, पानी आदि पेय पदार्थ पीना तथा इंजेक्शन आदि के द्वारा जो आहार लिया जाता है, या ग्रहण किया जाता है, वह प्रक्षिप्त आहार कहलाता है। तपश्चर्या आदि में केवल प्रक्षिप्त आहार का ही त्याग किया जाता है। 4. लेप्य या रोमाहार- त्वचा या रोम-छिद्रों द्वारा प्रतिसमय प्रत्येक पल लिया जाने वाला आहार लोमाहार है। जैसे -वृक्षों द्वारा जल ग्रहण करना। इसी प्रकार; क्रीम, घी, तेल आदि की मालिश से शरीर को जो शक्ति मिलती है, वह भी लोमाहार के अंतर्गत आती है। 5. ओजाहार- बाह्य-परिवेश से ऊर्जा या शक्ति को प्राप्त करना ओजाहार कहलाता है, जैसे- पक्षी अपने अण्डों को सेंकते हैं, सूर्य के प्रकाश से पौधे अपना भोजन बनाते हैं, अथवा तिर्यंच एवं मनुष्य भी सूर्य की रोशनी से विटामिन 'डी' प्राप्त करते हैं। उष्मा से शक्ति प्राप्त करना, अथवा सम्पूर्ण शरीर द्वारा आहार के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करना ओजाहार कहा जाता है। माता के गर्भ में शिशु जो आहार लेता है, वह भी ओजाहार है। 6. मनः आहार- आहार की इच्छा होने पर मानसिक रूप से तोष (संतोष) को प्राप्त करना मनः आहार कहलाता है। स्वप्न आदि में आहार करने या बहुत सारी मिठाइयाँ एवं खाने की सामग्री देखकर मन भर जाता है, फिर खाने की इच्छा नहीं होती है। इस प्रकार की मन से तृप्ति का अनुभव होना मनः आहार कहलाता है। अनुत्तर–विमानवासी देवों की भोजन की इच्छा मात्र विचार से तृप्त हो जाती है। सामान्यतया, तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों के ग्रहण करने को आहार कहते हैं। ओज, लोम और कवल -इनमें से किसी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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