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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 503 करना विचिकित्सा है। 1188 “संतंमि वि वितिगिच्छा, सज्झेज्ज ण मे अयं अट्टो"- यह कार्य होगा या नहीं, यह विचिकित्सा है। विचिकित्सा, अर्थात् मति का विप्लव होना। एक अन्य प्रकार से विचिकित्सा की व्याख्या घृणा से की गई है। साधु के मलिन वस्त्र, पात्र, उपकरण आदि देखकर निन्दा, गर्दा करना दुगुच्छा (विचिकित्सा) कहलाती है। ज्ञानावरणीय और मोहनीय-कर्म के उदय से होने वाली चित्तविलुप्तिरूप स्थिति विचिकित्सासंज्ञा है, 1189 या चित्त की अस्थिर समीक्षावृत्ति विचिकित्सा-संज्ञा है। दूसरे जीवों की प्रकृति, या व्यक्ति एवं पदार्थ आदि के प्रति घृणा/अरुचि का भाव जुगुप्सा–संज्ञा कहलाती है। वस्तुतः, अमेरिका के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक मैकडूगल McDougal} ने जिन चौदह मूलप्रवृत्तियों की चर्चा की है, उनमें विकर्षण की मूलप्रवृत्ति और सामान्य मनोविज्ञान में घृणा Disgust} का संवेग जैनदर्शन की विचिकित्सा-संज्ञा के समान ही है। मनोवैज्ञानिक घृणा के भाव को एक संवेग के रूप में वर्णित करते हैं। 1190 वे कहते हैं कि जिस प्रकार क्रोध, भय, खुशी, डर आदि संवेग जीवन के प्रमुख संवेग हैं, उसी प्रकार बहुत सारे लोगों में घृणा का भाव भी पाया जाता है, जो व्यक्ति के मन और मस्तिष्क में उत्तेजना पैदा करता है, जिससे व्यक्ति को वस्तु और व्यक्ति के प्रति घृणा का भाव उत्पन्न होता है। जुगुप्सा आवश्यक भी और अनावश्यक भी - जुगुप्सा आवश्यक भी है और अनावश्यक भी, क्योंकि जहाँ किसी के प्रति ममत्व का पोषण हो रहा है, रागादि भावों की वृद्धि हो रही है, वहाँ 1188 1) निशीथसूत्र- 1/24 विदु कुच्छति व भण्णति, सा पुण आहारमोयमसिणाई। तीसु वि देसे गुरूणा, मूलं पुण सव्विहि होती। - वही - 1/25 2) देखिए गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा 29 की अंग्रेजी टीका, जे.एल.जैनी, पृ. 22 3) जैनसिद्धान्त बोल संग्रह, प्रथम भाग, भैरोदान सेठिया, पृ. 178 4) जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन,भाग-2, डॉ.सागरमल जैन, पृ.60 1189 1) मोहोदयात् चित्तविप्लुत्तो...... | – अभिधानराजेन्द्रकोश, भाग-6, 1191 2) प्रवचन-सारोद्धार, संज्ञाद्वार 147, साध्वी हेमप्रभाश्री, गाथा 925, पृ. 81 1190 190 उत्तराध्ययनसूत्र दार्शनिक अनुशीलन एवं वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उसका महत्त्व -साध्वी डॉ. विनीतप्रज्ञा, पृ. 492 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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