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________________ 504 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व जुगुप्सा करना आवश्यक भी है। व्यक्ति का सबसे अधिक ममत्व शरीर से होता है, वह शरीर के प्रति आसक्ति अधिक रखता है। शरीर को सजाने-संवारने, अच्छा दिखाई देने के लिए वह अपना सारा धन और समय लगाता है और कर्मबंधन करता चला जाता है। उस समय उसे यह विचार करना चाहिए कि उसका शरीर हाड़-मांस का बना पिंजरा है, सदा नष्ट होने वाला है, उस नश्वर देह के पोषण में वह अपना समय क्यों बर्बाद कर रहा है। धर्म के साधनरूप जो शरीरादि हैं, वे स्वभाव से ही अपवित्र हैं, अतः इस प्रकार उसके प्रति जुगुप्सा करना भी निर्जरा का कारण बनता है। जुगुप्सा अनावश्यक भी वस्तुतः, जुगुप्सा शब्द 'गुप रक्षणे' धातु से बना है, जिसका अर्थ है- रक्षण की इच्छा और दूसरा अर्थ मानसिक - ग्लानि भी है। मान और अहम् के वशीभूत होकर, दूसरों को नीचा दिखाने एवं स्वयं को उच्च और महान् बताने के लिए जो घृणा, ग्लानि, निंदा, आलोचना की जाती है, वह बंधन का कारण बनती है। जुगुप्सा का भाव सम्यग्दर्शन में बाधक बनता है। सम्यग्दर्शन के पांच अतिचारों में विचिकित्सा (जुगुप्सा) भी एक है । अतिचार से अभिप्राय ऐसे असदाचरण से है, जिनसे सम्यग्दर्शन की विराधना होती है। इन्हें दूषण भी कहा जाता है, जो सत्य को अपने शुद्ध स्वरूप में विज्ञात करने में बाधक होते हैं। इनसे व्रत -भंग तो नहीं होता, परन्तु उसका सम्यग्दर्शन अवश्य प्रभावित होता है। शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टि - प्रशंसा और अन्यदृष्टिसंस्तवइन पाँच दोषों को उपासकदशांग 191, भगवती आराधना 192, तत्त्वार्थसूत्र' आदि में सम्यग्दर्शन के पाँच अतिचार बतलाये गये तथा योगशास्त्र' और सम्यक्त्वसप्तति' में इन्हीं को 'दूषण' कहा गया है । चल, मल और अगाढ़ दोषों में जुगुप्सा मलदोष है, जो यथार्थ दृष्टिकोण की निर्मलता को 1195 1191 1192 1193 1194 · 1195 शंका कांक्षा विचिकित्सा मिथ्यादृष्टिप्रंशसनम् । तत्संस्तवश्च पंचापि सम्यक्त्वं दूषयन्त्यलम् ।। - योगशास्त्र, - 2/17 दूसिज्जइ जेहि इमं ते दोसा पंच वज्जणिज्जा उ । संका कंखा विगच्छा, परतित्थिपसंससंयवणं । । - सम्यक्त्वसप्तति, गाथा 28 Jain Education International उपासक दशांगसूत्र, प्रथम अध्ययन, पृ. 46-47 भगवती आराधना - 16/62/14 शंकाकाङ्क्षाविचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्टेरतिचाराः । - तत्त्वार्थसूत्र - 7/18 1193 For Personal & Private Use Only 1194 www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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