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________________ 502 (स) विचिकित्सा - संज्ञा (जुगुप्सा ) ( Instinct of disgust} विचिकित्सा (जुगुप्सा) संज्ञा का स्वरूप 1183 जैनदर्शन में संज्ञाओं के जो चतुर्विध, दशविध और षोडशविध वर्गीकरण प्राप्त होते हैं, उनमें षोडशविध वर्गीकरण में विचिकित्सा को भी संज्ञा कहा गया है । संसारी जीवों की जो स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है, उसे संज्ञा कहा गया है । तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि नामक टीका में विचिकित्सा या जुगुप्सा को परिभाषित करते हुए कहा गया है - "इसके उदय से अपने दोषों का संवरण करने की और परदोषों को उजागर करने की जो वृत्ति होती है, उसे जुगुप्सा कहते हैं सामान्यतया, दूसरों में जो कमी या बुराइयों को देखने की प्रवृत्ति है, वही जुगुप्सा है। यह अपने दोषों को छिपाने और दूसरों के दोषों को उजागर करने की सामान्य प्रवृत्ति के अन्तर्गत आती है । ' कभी-कभी जुगुप्सा का अर्थ घृणा का भाव भी है। दूसरों के शरीर, वस्त्र अथवा ज्ञानादि में कमी को देखकर उसके प्रति घृणा का जो भाव उत्पन्न होता है, वह जुगुप्सा है। 1184 1185 सामान्यतः, जुगुप्सा-संज्ञा दूसरों के प्रति द्वेषरूप होती है । वस्तुतः, जुगुप्सा नो - कषाय का ही एक रूप है। 11187 व्यक्ति अपने अहंकार के पारितोषण के लिए दूसरों की कमी को देखता है। दूसरों के प्रति घृणा का भाव मान- कषाय का निषेधात्मक पक्ष है। जैनदर्शन में सम्यक्त्व के जो लक्षण बताए गए हैं, उनमें विचिकित्सा को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। नैतिक अथवा धार्मिक- आचरण के फल के प्रति संशय करना, अर्थात् सदाचार का प्रतिफल मिलेगा या नहीं - ऐसा संशय 1183 1) आचारांगसूत्र- 1/1/2 2) अभिधानराजेन्द्रकोश खण्ड-7, पृ. 301 1184 यदुदयादात्मदोषसंवरणं परदोषाविएकरणं सा जुगुप्सा । सर्वार्थसिद्धि - 8 / 9, 386/1 1185 कुत्साप्रकारो जुगुप्सा । ..आत्मीयदोषसंवरणं जुगुप्सा । राजवार्त्तिक- 8/9, 4/574/18 जुगुप्सन जुगुप्सा जेसिं कम्माणमुदएण दुगुछा उप्पज्जदि तेसिं दुगुछ। इति सणा-वा 6/1,9-1 1186 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 1187 1) स्थानांगसूत्र- 9/69 4) प्रथमकर्मग्रंथ गाथा 21 Jain Education International 2) तत्त्वार्थसूत्र - 8/10 3) प्रज्ञापनासूत्र - 23 / 2 5) प्रवचनसारोद्धार For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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