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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
निराधार, निरीह, असहाय बालक की भांति सिसकियाँ भरते हुए विलाप करने लगे178
"प्रभु तो पधार गए, अब मेरा कौन है ?" अन्तर की गहरी वेदना उभरने लगी, दिशाएँ अन्धकारमय प्रतीत होने लगी और चित्त में शून्यता व्याप्त होने लगी। तनिक जाग्रत होते ही उपालम्भ के स्वरों में वे बोल उठे
"हे प्रभु! आपने मुझ रंक पर यह असहनीय वज्रपात कैसे कर डाला ? मुझे मझधार में छोड़कर कैसे चल दिए ? अब मेरा हाथ कौन पकड़ेगा ? मेरा क्या होगा? मेरी नौका कौन पार लगाएगा ? हे प्रभो! आपने यह क्या किया ? मेरे साथ कैसा अन्याय कर डाला ? विश्वास देकरं विश्वास भंग क्यों किया ? अब मेरे प्रश्नों का उत्तर कौन देगा ? मेरी शंकाओं का समाधान कौन करेगा ? मैं किसे प्रभु कहूँगा? अब मुझे 'है गौतम!' कहकर प्रेम से कौन बुलाएगा ? हे करुणासिन्धु! मेरे किस अपराध के बदले आपने ऐसी कठोरता बरतकर अन्त समय में मुझे दूर कर
दिया?1179
ऐसी दयनीय एवं करुण स्थिति में भी उनके आँसुओं को पोंछने वाला, भग्न हृदय को आश्वासन देने वाला और गहन शोक के संताप को दूर करने वाला इस पृथ्वीतल पर आज कोई न था। जब गौतम में आत्मनिरीक्षण तथा प्रशस्त शुभ अध्यवसायों का दीपक प्रकाशित हुआ, मोह, माया, ममता के शेष बन्धन क्षणमात्र में भस्मीभूत हो गए। उनकी आत्मा एकत्व भावना के साथ पूर्ण निर्मल बन गई और उनके जीवन में केवलज्ञान का दिव्य प्रकाश व्याप्त हो गया। इस प्रकार, उनका समस्त शोक समाप्त हो गया। गौतम को ज्ञात हो गया कि प्रभु के प्रति ममता, आसक्ति, अनुराग की दृष्टि तो मैं ही रखता था, मेरा यह प्रेम एकपक्षीय था। मेरी इस रागदृष्टि को दूर करने के लिए ही प्रभु ने अन्त समय में मुझे दूर कर, प्रकाश का मार्ग दिखाकर, मुझ पर अनुग्रह किया है। 180
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1) भगवतीसूत्र- 14/7 2) भगवान् महावीर, उपाध्याय केवल मुनि, पृ. 192 1) गौतमरासः परिशीलन, महोपाध्याय विनयसागर, पृ. 56-61 2) श्रीकल्पसूत्र गौतमरास : परिशीलन, महोपाध्याय विनयसागर, पृ. 61
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