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________________ 44 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व बनाए रखने के लिए सदैव प्रयासशील रहना। 4० ऐसा वह क्यों करता है ? इस प्रश्न के समाधान में हम यह कह सकते हैं कि प्राणीय-व्यवहार के प्रेरक-तत्त्व मूल प्रवृत्तियों (Instincts) को माना गया है। इन्हीं प्राणीय-व्यवहार के प्रेरक-तत्त्वों को जैनदर्शन में संज्ञा कहा गया है। संज्ञाएँ जन्मजात मानी गई हैं, इस कारण जीव की प्रवृत्ति ही ऐसी होती है कि वह प्रतिकूल से अनुकूल परिस्थितियों में अपने को ले. जाता है। यों तो आहार, भय, मैथुन, परिग्रह आदि सामान्य प्रवृत्तियाँ मनुष्य, पशु सबमें होती हैं, किन्तु मनुष्य अपनी विवेक-शक्ति के कारण ही उचित या अनुचित का भेद कर सकता है। पशुओं में मात्र वासनात्मक संज्ञाएँ होती हैं, जबकि मनुष्यों में विवेक या संज्ञानात्मक संज्ञा भी होती है। जैनागमों में संज्ञा का एक अर्थ इच्छा या आकांक्षा (Desire) लिया गया है, तो दूसरा अर्थ विवेकशीलता भी माना गया है। फिर भी; इच्छा, आकांक्षा तथा संज्ञा में सूक्ष्म अंतर भी है। संज्ञा प्रसुप्त या अवचेतन में रही हुई इच्छा है, ज्ञान-मीमांसा की अपेक्षा इच्छा, अर्थात् -'ज्ञानजन्यत्वे सति कृतिजनकत्वमिच्छाया लक्षणम्'।42 ज्ञानजन्य वृत्ति के अनुरूप कार्य करने के लिए प्रवृत्त होना इच्छा है, अथवा दूसरे अर्थ में, इच्छा कामः- इच्छा को काम (कामना) कहा गया है। वासना, कामना या इच्छा से ही समग्र व्यवहार का उद्भव होता है। यह वासना, कामना या इच्छा से प्रसूत समस्त व्यवहार ही नैतिक एवं धार्मिक-मूल्यांकन का विषय है। सर्वार्थसिद्धि ग्रंथ में आहारादि विषयों की अभिलाषा को संज्ञा कहा गया है। यहाँ संज्ञा इच्छा के संदर्भ में है, जिससे विवश होकर जीव इस लोक में दारुण दुःख को प्राप्त करते हैं और जिनका सेवन करने से जीव दोनों ही भवों में दुःख को प्राप्त करते हैं। जैनदर्शन में इच्छा, क्षुधा, अभिलाषा, वासना, कामना, आशा, लोभ, तृष्णा, आसक्ति और संकल्प (Will) -ये सभी संज्ञा के पर्यायवाची के रूप 40_Beyond the pleasure principle - S. Freud, उद्धृत, आध्यात्मयोग और चित्त-विकलन, पृ. 246. आगमप्रसिद्धा वाच्छा संज्ञा अभिलाष इति गो.जी., जी.प्र.2/21/10 तर्कसंग्रह, अवशिष्ट परिच्छेदः, अन्नम भट्ट .. 43 तर्कसंग्रह, शब्द परिच्छेदः, अन्नम भट्ट सवार्थसिद्धि- /2/24/182/1 इह जाहि बाहिया वि य जीवा पावंति दारूणं दुक्ख सेवंता वि य उभए, सर्वार्थसिद्धि, 51 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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