________________
जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
जैनदर्शन में पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय - इन पाँच कायों में दीर्घकालोपदेशिकी आदि संज्ञा नहीं पायी जाती है, किन्तु उनमें आहारादि चारों संज्ञाएँ होती हैं ।
सकषायी जीवों में सभी संज्ञाएँ पायी जाती हैं, किन्तु पूर्ण वीतराग - अवस्था प्राप्त होने पर संज्ञाएँ नहीं रहती हैं। देवताओं में सबसे कम आहारसंज्ञा, सबसे अधिक परिग्रहसंज्ञा होती है, तिर्यंचों में सबसे कम परिग्रहसंज्ञा और सबसे अधिक आहारसंज्ञा पायी जाती है। नारकियों में सबसे कम मैथुनसंज्ञा तथा सबसे अधिक भयसंज्ञा होती है, क्योंकि वे निरन्तर भयग्रस्त रहते हैं। 39
संज्ञाओं की उत्पत्ति के विभिन्न कारण दृष्टिगोचर होते हैं। संज्ञाएँ वेदनीय अथवा मोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न होती हैं तथा आहार आदि का सतत चिन्तन करते रहने से भी उत्पन्न होती हैं । सत्त्वहीनता से भयसंज्ञा, गरिष्ठ रसयुक्त तामसिक भोजन ग्रहण करने से मैथुनसंज्ञा और आसक्ति और ममत्वबुद्धि रखने से परिग्रहसंज्ञा की उत्पत्ति का कारण बनता है।
उपर्युक्त संज्ञाओं का समीचीन रूप से अध्ययन कर मनुष्यों के व्यवहार, मनोवृत्ति, आचार आदि का पता लगाया जा सकता है।
संज्ञा इच्छा या आकांक्षा के रूप में
39
43
जहाँ-जहाँ जीवन है, चेतना है, वहाँ-वहाँ इच्छा एवं आकांक्षा है । चैतसिक जीवन का मूल स्वभाव यह है कि वह बाह्य एवं आन्तरिक-उत्तेजनाओं एवं संवेदनाओं से उत्पन्न विषम परिस्थितियों में भी सामंजस्य बनाए रखने की कोशिश करता है। मनुष्य ही नहीं, तिर्यंचों में भी छोटे से छोटे जीव भी जीवन की सुरक्षा के लिए स्थान, भोजन आदि आवश्यक वस्तुओं की व्यवस्था में लगे रहते हैं । उसका कारण यह है कि उनके मन में भी जीवन जीने की इच्छा या आकांक्षा रहती है । जीवन जीने के लिए परिस्थितियों से अनुकूल बनाए रखना आवश्यक है । फ्रायड लिखते हैं – 'चैतसिक जीवन और सम्भवतया स्नायविक जीवन की प्रमुख प्रवृत्ति है- आन्तरिक - उद्दीपकों के तनाव को समाप्त करना एवं साम्यावस्था को
प्रज्ञापनासूत्र 8/8/9 ( सण्णापदं)
-
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org