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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व मोहसंज्ञा - मोहनीयकर्म के उदय से। धर्मसंज्ञा - मोहनीयकर्म के क्षयोपशम से। सुखसंज्ञा - रति नामक नोकषाय-मोहनीयकर्म के उदय से। दुःखसंज्ञा - अरति नामक नोकषाय-मोहनीयकर्म के उदय से। विचिकित्सा/ जुगुप्सा-संज्ञा – जुगुप्सा नोकषाय–मोहनीयकर्म के उदय से। शोकसंज्ञा - शोक नामक नोकषाय—मोहनीयकर्म के उदय से। . . __उपर्युक्त संज्ञाएँ स्थावर-एकेन्द्रिय (पृथ्वी, जल, तेजस्, वायु और वनस्पति) जीवों से लेकर वैमानिक देवों तक के सभी जीवों में हीनाधिक-रूप से प्राप्त होती हैं, अतः चार संज्ञाओं में ही धर्म को छोड़कर शेष सभी संज्ञाएं समाहित हो जाती हैं, इसलिए आगमों में आहार, भय, मैथुन और परिग्रह –इन चारों का ही विशेष विवेचन शास्त्रकारों ने किया है। यह स्पष्ट है कि संसारी सभी जीवों में समस्त संज्ञाएँ पायी जाती हैं। धर्मसंज्ञा चारों गतियों में सम्भव तो होती है, किन्तु सभी में नहीं पाई जाती है, तथापि उनमें विशेष अन्तर होता है , 1. देवों में परिग्रहसंज्ञा एवं लोभसंज्ञा की प्रधानता होती है। 2. मनुष्यों में मैथुनसंज्ञा एवं मानसंज्ञा की प्रधानता होती है। 3. तिर्यंचों में आहारसंज्ञा एवं परिग्रहसंज्ञा की प्रधानता होती है। 4. नारकी में भयसंज्ञा तथा क्रोधसंज्ञा की प्रधानता होती है। चार गतियों में संज्ञा - 1. मनुष्य-गति में चारों संज्ञाएँ पायी जाती हैं. क्योंकि संज्ञी-मनुष्यों में दृष्टिवादोपदेशिकी एवं दीर्घकालिकी-संज्ञा पायी जाती है एवं असंज्ञी-मनुष्यों में हेतुवादोपदेशिकी-संज्ञा भी पायी जाती है। 2. तिर्यंच-गति में दीर्घकालिकी तथा हेतुवादोपदेशिकी-संज्ञा पायी जाती है। 3. देव तथा नरक-गति में दीर्घकालिकी-संज्ञा पायी जाती है। 7 सव्वेसिं चउ दह वा, सन्ना सवे ................ । दण्डक-प्रकरण, गाथा 12 मणआण दीहकालिय, दिद्विवाओवएसिआ केबि ............। दण्डक-प्रकरण, गाथा 33 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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