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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
14. दुःख-संज्ञा – (Instinct of Pain) -
असातावेदनीय-कर्म के उदय से जो दुःखरूप अनुभव होता है, उसे दुःखसंज्ञा कहते हैं। जीव की प्रतिकूलता में दुःखानुभूति-रूप मनःस्थिति को दुःखसंज्ञा कहते हैं।
15. विचिकित्सा-संज्ञा – (Instinct of Suspence/disgust) -
ज्ञानावरणीय मोहनीय-कर्म के उदय से होने वाली चित्तविलुप्तिरूप स्थिति विचिकित्सा-संज्ञा है। जीव का प्रकृति, पुरुष, पदार्थ आदि के प्रति घृणा या अरुचि का भाव विचिकित्सा (जुगुप्सा) संज्ञा है।
16. शोक-संज्ञा – (Instinct of Sorrow) -
___ मोहनीय-कर्म के उदय से होने वाली विप्रलाप और वैमनस्य-रूप स्थिति अथवा इष्ट के वियोग में, अनिष्ट वस्तु के संयोग में खेद या चिन्ता की स्थिति को शोकसंज्ञा कहते हैं।
कौनसी संज्ञा का उदय किस कर्म के उदय अथवा क्षयोपशम से होता है -
आहारसंज्ञा - अशातावेदनीय-कर्म के उदय से। भयसंज्ञा - भयमोहनीय या नोकषायमोहनीय-कर्म के उदय से। मैथुनसंज्ञा - वेदमोहनीय-कर्म के उदय से। परिग्रहसंज्ञा - लोभमोहनीय-कर्म के उदय से। ओघसंज्ञा - मतिज्ञानावरणीय एवं दर्शनावरणीय के क्षयोपशम से। लोकसंज्ञा - ' मतिज्ञानावरणीय एवं दर्शनावरणीय के क्षयोपशम से। क्रोधसंज्ञा - क्रोधकषाय-मोहनीयकर्म के उदय से। मानसंज्ञा - मानकषाय-मोहनीयकर्म के उदय से। मायासंज्ञा - मायाकषाय-मोहनीयकर्म के उदय से। लोभसंज्ञा - लोभकषाय-मोहनीयकर्म के उदय से।
36 दण्डक-प्रकरण, मुनि मनितसागरजी, पृ. 94
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