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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
जो मन में होता है, वह कहता नहीं है; जो कहता है, वह करता नहीं हैवह मायावी होता है। 3 माया मोहनीय-कर्म के उदय से अशुभ–अध्यवसायपूर्वक मिथ्याभाषण आदि-रूप कुटिल वाक्-व्यापार की प्रवृत्ति को मायासंज्ञा कहते हैं।
10. लोभ-संज्ञा - (Instinct of Greed) -
लोभ मोहनीय-कर्म के उदय से सचित अचित पदार्थों को प्राप्त करने की लालसा लोभसंज्ञा है। स्थानांगसूत्र में लोभ को आमिषावर्त्त कहा गया है। जिस प्रकार मांस के लिए गिद्ध आदि पक्षी चक्कर काटते हैं, उसी प्रकार लोभी मनुष्य इष्ट पदार्थों की प्राप्ति के लिए उद्यमशील रहता है। प्रशमरति में लोभ को सब विनाशों का आधार, सब व्यसनों का राजमार्ग बताया है।
11. मोह-संज्ञा - (Instinct of Delusion) -
____ मोहनीय कर्म के उदय से होने वाली मिथ्यादर्शनरूप विपरीत-वृत्ति मोह-संज्ञा कहलाती है, अथवा जीव की व्यक्ति, वस्तु आदि के प्रति मूर्छा, आसक्ति-रूप मनःस्थिति को मोह-संज्ञा कहते हैं।
12. धर्म-संज्ञा - (Instinct of Religion)
मोहनीय-कर्म के क्षयोपशम से क्षमा आदि धर्मों के सेवनरूप वृत्ति धर्मसंज्ञा है। जीवात्मा की स्वाभाविक करुणा, मैत्री आदि की मनःस्थिति को धर्मसंज्ञा कहते हैं।
13. सुख-संज्ञा – (Instinct of Pleasure) -
सातावेदनीय-कर्म के उदय से होने वाले सुखरूप अनुभव को सुखसंज्ञा कहते हैं। जीव की अनुकूलता में सुखानुभूति-रूप मनःस्थिति को सुखसंज्ञा कहते हैं।
33 ये वाचा स्वमपि स्वान्तं – धर्मा, अ.6, गाथा 19
आमिसावतसमाणे लोभे- ठाणं/स्थान 4, उ. 4, सूत्र 653 सर्व विनाशाश्रयिण- प्र.र., गाथा 29
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