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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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आचारांगनियुक्ति-टीका में लोकसंज्ञा का कारण मोहनीयकर्म का उदय और ज्ञानावरणीय-कर्म का क्षयोपशम बताया गया है।
7. क्रोध-संज्ञा – (Instinct of Anger) -
जीव की जीव एवं अजीव के प्रति आवेशरूप मनःस्थिति को . क्रोधसंज्ञा कहते हैं। क्रोध मोहनीय कर्म के उदय से प्राणी के मुख और शरीर में विकृति होना, नेत्र लाल होना तथा ओंठ फड़कना आदि क्रोधवृत्ति के अनुरूप चेष्टा करना क्रोधसंज्ञा है।
योगशास्त्र में आचार्य हेमचन्द्रसूरिजी ने क्रोधसंज्ञा के स्वरूप को वर्णित किया है। क्रोध शरीर और मन को संताप देता है, क्रोध बैर का कारण है, क्रोध दुर्गति की पगडण्डी एवं मोक्ष-सुख में अर्गला के समान है। गीता में श्रीकृष्ण ने काम, क्रोध तथा लोभ को आत्मा के मूल स्वभाव का नाश करने वाला नरक का द्वार बताया है।"
8. मान-संज्ञा - (Instinct of Pride) -
___ मान मोहनीय-कर्म के उदय से अहंकार, दर्प, गर्व आदि के रूप में जीव की परिणति को मानसंज्ञा कहते हैं। मान एक ऐसा मनोविकार है, जो स्वयं को उच्च एवं दूसरों को निम्न समझने से उत्पन्न होता है। सूत्रकृतांग2 में कहा गया है - "अभिमानी अहं में चूर होकर दूसरों को परछाई के समान तुच्छ मानता है।" अतः, जीवात्मा में (स्व आत्मा) जीव (परिजन), अथवा अजीव (धन-सम्पत्ति) आदि के कारण अहंकारपूर्ण मनःस्थिति को मानसंज्ञा कहते हैं।
9. माया-संज्ञा – (Instinct of Deceit) -
जीव की कपट. या ढोंगपूर्ण मनःस्थिति को मायासंज्ञा कहते हैं। धर्मामृत (अनगार) में मायासंज्ञा से युक्त व्यक्ति का स्वरूप बताया गया है।
29 योगशास्त्र, प्रकाश 4, गाथा 9 30 गता, अध्याय 16, श्लोक 21
मायावेदनीये नाशुभसंक्लेशानृत संभाषणा दिक्रिया मायासंज्ञा। - अभिधानराजेन्द्रकोश, भाग-7, पृ.
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अण्ण जणं पस्सति बिंबभूयं - सू.कृ., अ 13, गाथा 8
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