________________
जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
में यह संज्ञा सबसे अधिक होती है, क्योंकि उनमें इसका सद्भाव बहुत लम्बे समय तक बना रहता है।
4. परिग्रह-संज्ञा – (Instinct of appropriation) –
परिग्रह का त्याग न होने से, लोभ कषाय-मोहनीय का उदय होने से, परिग्रह को देखने से उत्पन्न होने वाली बुद्धि से तथा परिग्रह के विषय में विचार करते रहने से परिग्रहसंज्ञा होती है। यह संज्ञा दसवें गुणस्थान तक होती है। तिर्यंचों में परिग्रहसंज्ञा सबसे कम तथा देवों में सबसे अधिक पायी जाती है, क्योंकि स्वर्ण और रत्नों में उनकी आसक्ति बनी रहती है।28
5. ओघ-संज्ञा - (Instinct of Ogha) -
पर्वजन्मों के संस्कार आदि से जीवों में जो भाव प्रकट होते हैं, उसे ओघ संज्ञा कहते हैं, जैसे- बालक की जन्म से ही स्तनपान करने की जो प्रवृत्ति होती है, वह सिखाई नहीं जाती, वह पूर्व संस्कारों के परिणामस्वरूप स्वतः प्रकट होती है। बिना उपयोग के कार्य करने की प्रवृत्ति को ओघ संज्ञा कहते हैं, जैसे बैठे-बैठे पांव हिलाना, होंठ चबाना, निष्प्रयोजन वृक्ष पर चढ़ जाना, कंकर फेंकना, गुनगुनाना इत्यादि। मतिज्ञानावरणीय-कर्म के क्षयोपशम के फलस्वरूप संसार के रुचिकर पदार्थों को अथवा लोक-प्रचलित शब्दों के अर्थ को जानने की अभिलाषा को ओघ संज्ञा कहते हैं। भूकम्प आदि आपदाओं के आने के पूर्व ही ओघसंज्ञा से अनेक पशु-पक्षी सुरक्षित स्थानों को चले जाते हैं।
6. लोक-संज्ञा – (Instinct of Universe) -
हेय होने पर भी लौकिक-रूढ़ि, अंधविश्वास आदि का अनुसरण करने की बलवती वृत्ति लोकसंज्ञा कहलाती है। मतिज्ञानावरणीय-कर्म के क्षयोपशम से संसार के रुचिकर और सुन्दर पदार्थों को या लोक-प्रचलित शब्दों के अर्थों को विशेष रूप से जानने की तीव्र अभिलाषा लोकसंज्ञा है।
26 प्रज्ञापनासूत्र - 8/5/9 27 चउहि ठाणेहि परिग्गहसण्णा समुप्पज्जति, तं जहा अविमुत्तियाए
लोभवेयाणि ज्जस्स कम्मस्स उदएणं मतीए तदट्ठोवअओगेणं।। - ठाणं-4/582 प्रज्ञापनासूत्र - 8/8, 9
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org