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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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में प्रयुक्त हुए हैं, जिनका सामान्य अर्थ शरीर, इन्द्रियों और मन की अपनी विषयों की चाह या कामना, इच्छा से है। प्रत्येक जीवतत्त्व, चाहे वह एकेन्द्रिय हो या पंचेन्द्रिय, उसमें आहार आदि संज्ञाएँ अव्यक्त या व्यक्त रूप से अवश्य पाई जाती हैं। एकेन्द्रिय-जीवों से लेकर पशुजगत् तक के सभी प्राणियों में जीववृत्ति के साथ-साथ क्षुधा का भी योग रहता है, लेकिन मानवीय स्तर पर तो संज्ञा के अनेक रूप उपलब्ध होते हैं। इस स्तर पर अव्यक्त आकांक्षाएं चेतना के स्तर पर आकर व्यक्त हो जाती हैं। वस्तुतः, जीववृत्ति से लेकर संकल्प तक के सारे स्तरों में इच्छा या आकांक्षा के मूलतत्त्व की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है, चाहे वह आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि की संज्ञा ही क्यों न हो, अंतर है, तो केवल चेतना में उसके स्पष्ट बोध का।
आकांक्षा के रूप में -
सामान्यतया, इच्छा, आकांक्षा, अभिलाषा आदि पर्यायवाची ही माने जाते हैं, फिर भी इच्छा और आकांक्षा में सूक्ष्म दृष्टि से एक अन्तर माना जा सकता है। सामान्यतः, इच्छा का सम्बन्ध किसी वस्तु या विषय से होता है, अतः इच्छा का सम्बन्ध परद्रव्य से है। वह व्यक्ति को पर से जोड़ती है। जैनदर्शन की दृष्टि से कहें, तो परद्रव्यों की चाह ही इच्छा है। इच्छा का सम्बन्ध हमेशा 'स्व' से भिन्न परद्रव्य से होता है। यह, दूसरे की चाह है, अंग्रेजी में हम इसे Will कहते हैं, हिन्दी में इसे चाह भी कहा जा सकता है। आकांक्षा किसी कमी की अनुभूति है और उसके माध्यम से हम उस कमी की पूर्ति चाहते हैं। आकांक्षा का सम्बन्ध किसी वस्तु की चाह न होकर वस्तु की कमी की अनुभूति है। अंग्रेजी भाषा में Will तथा Want में जो अंतर है, वही अंतर इच्छा और आकांक्षा में माना जा सकता है। आकांक्षा Want है, इच्छा Will है। सूक्ष्म दृष्टि से कहें, तो आकांक्षा इच्छा की जनक है। व्यक्ति किसी कमी की अनुभूति करता है, तब वह आकांक्षा कहलाती है और जब उस कमी की पूर्ति की चाह उत्पन्न होती है, तो वह इच्छा का रूप ले लेती है। भूख का लगना आकांक्षा है और खाने के सम्बन्ध में निर्णय करना इच्छा है। इस प्रकार सूक्ष्म रूप से कहें, तो आकांक्षा हेतु (कारण) है और इच्छा कार्य (Function) है।
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