SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 499
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 493 हैं। इसे ही 'आर्तध्यान' कहते हैं और इस आर्तध्यान का जो भाव है, वही शोक है। दूसरे शब्दों में कहें, तो चेतना राग या आसक्ति में डूबकर किसी वस्तु और उसकी उपलब्धि की आशा पर केन्द्रित होती है, तो उसे आर्त्तध्यान कहा जा सकता है। अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति की आकांक्षा या प्राप्त वस्तु के वियोग की संभावना की चिन्ता में चित्त का डूबना आर्तध्यान है।1170 जिनेश्वर भगवान् ने इसके मुख्य चार भेद कहे हैं171 - 1. अमनोज्ञ-अनिष्ट संयोग - अनिष्ट अथवा अप्रिय (व्यक्ति, वस्तु आदि) का संयोग होने पर उसके वियोग के लिए बार-बार चिन्ता करना। 2. मनोज्ञ इष्ट संयोग - इष्ट का संयोग होने पर उसका वियोग न होने की बार-बार चिन्ता करना। 3. आतंक – ज्वर, कुष्ट आदि अनेक प्रकार के रोगों की प्राप्ति होने पर, अथवा प्रतिकूल परिस्थिति आने पर यह विचार होता है कि इसका शीघ्र नाश हो- इस प्रकार दुःख या कष्ट आने पर उसके दूर होने की बार-बार चिन्ता करना। 5. भोगेच्छा - अनुभव किए अथवा भोगे हुए काम-भोगों के वियोग न होने की वांछा करना और उसका विचार करते रहना। __ मूलतः आर्त्तध्यान वर्तमान के सम्बन्ध में तो होता ही है; किन्तु यह भविष्य की आशंका-कुशंकाओं के अनवरत विचार के रूप में भी होता है, जोकि शोकस्वरूप है। शरीर और सांसारिक-भोगों आदि के विषय में होने से यह संसार बढ़ाने वाला है, अतः इसे दुर्ध्यान कहा गया है। 1170 1171 तत्त्वार्थसूत्र -9/31 1) अट्टे झाणे चउबिहे पण्णत्ते, तं जहा -अमणुण्णसंपओगसंपउत्ते तस्स विप्पओग संति समणा गए यावि भवति ....... | - भगवती, श.25, उ.7, सूत्र 238 2) तत्त्वार्थसूत्र -9/32 3) स्थानांगसूत्र -4/60-72 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy