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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व शब्द - संरचना की दृष्टि से सब अलग-अलग प्रतीत होते हैं, परंतु मूल में सबका स्वरूप प्रायः समान ही है । शोक-संज्ञा और नोकषाय के रूप में शोक की चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं। यहाँ हम आर्त्तध्यान के रूप में शोक की चर्चा करेंगे । 492 “ऋते भवम् आर्त्तम्”– इस नियुक्ति के अनुसार, ऋत अर्थात् दुःख के निमित्त के कारण संक्लिष्ट अध्यवसाय का नाम आर्त्तध्यान है । आर्त्तध्यान f 'अर्त्ति' शब्द का अर्थ चिन्ता, पीड़ा, शोक, दुःख, कष्ट आदि हैं। इसके सम्बन्ध से जो ध्यान होता है, वह आर्त्तध्यान है। जैनाचार्यों ने ध्यान को 'चित्तनिरोध' कहा है। 1166 चित्त का निरोध हो जाना ही ध्यान है। 'ध्यान' शब्द का सामान्य अर्थ चेतना का किसी एक विषय या बिन्दु पर केन्द्रित होना है । ' 11167 चेतना जिस विषय पर केन्द्रित होती है, वह प्रशस्त या अप्रशस्त – दोनों ही हो सकता है। इस हेतु से ध्यान के चार प्रकार कहे गए हैं - 1. आर्त्तध्यान, 2. रौद्रध्यान, 3. धर्मध्यान और 4. शुक्लध्यान । 68 तत्त्वार्थसूत्र में 'परेमोक्षहेतुः सूत्र से स्पष्ट होता है कि प्रारंभ के दो ध्यान आर्त्त और रौद्र-ध्यान संसार के हेतु या संसार बढ़ाने वाले हैं और परे अर्थात् अन्त के दो ध्यान (धर्मध्यान और शुक्लध्यान) मोक्ष के कारण हैं । 1168 1169 प्रस्तुत प्रसंग में संसारवर्ती सकर्मी जीवों को शुभ या अशुभ कर्मों के उदय से क्रमशः इष्ट का संयोग और अनिष्ट का वियोग तथा इष्ट का वियोग और अनिष्ट का संयोग अनादिकाल से होता आया है। इस संयोग-वियोग के कारणों से मन में संकल्प - विकल्प उत्पन्न होते ही रहते 1166 1167 1168 1169 1) उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् । - तत्त्वार्थसूत्र - 9 / 27 2) उत्तराध्ययनसूत्र - 30/35 ध्यानशतक - 2 1) चत्तारि झाणा पण्णत्ता, तं जहा - अट्ठेझाणे, रोद्देझाणे, धम्मेझाणे, सुक्केझाणे – भगवती, श. 25, उ.7, सूत्र 237 2) ध्यानशतक - 5 3) आर्त्तरौद्रधर्मशुक्लानि, - तत्त्वार्थसूत्र - 9 / 29 4) जैन धर्म और तान्त्रिक साधना, डॉ.सागरमल जैन, पृ. 258 तत्त्वार्थसूत्र - 9/30 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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