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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
वस्तुतः, यह स्पष्ट है कि उत्तम समाधि की प्राप्ति सातवें (अप्रमत्तसंयत) गुणस्थान में होती है, अतः आर्त्तध्यान सातवें गुणस्थान से पहले-पहले, अर्थात् छठवें प्रमत्तसंयत-गुणस्थान तक होता है। स्थानांगसूत्र में 1172 आर्त्तध्यान के निम्न चार लक्षणों का उल्लेख हुआ है। वस्तुतः, जब शोक व्याप्त होता है, तब भी यही लक्षण सामान्यतः देखने में आते हैं।
1. क्रन्दनता - उच्च स्वर से रोना। 2. शोचनता – दीनता प्रकट करते हुए शोक करना। 3. तेपनता - आँसू बहाना। 4. परिदेवनता - करुणा-जनक विलाप करना।
शोक के दुष्परिणाम -
शोक एक मानसिक अवस्था है, मानसिक अवस्था दो प्रकार की होती है, एक –प्रसन्नता की और दूसरी -उदासी (शोक) की। एक खिला हुआ फूल है, तो दूसरा मुरझाया हुआ फूल । विकसित फूल सबको अच्छा लगता है और मुरझाया हुआ फूल अच्छा नहीं लगता, उसी प्रकार प्रसन्नता जहाँ व्यक्ति को सक्रिय करती है, वहीं उदासी उसे निष्क्रिय करती है। शोक की अवस्था में व्यक्ति का चित्त अस्तव्यस्त हो जाता है और उसके आसपास रहे व्यक्ति भी शोक के कारण प्रभावित हो जाते हैं, जैसे -
कल्पसूत्र में 1173 भगवान् महावीर ने माता के गर्भ में रहते हुए यह विचार किया कि अन्य माताओं का गर्भ जब फिरता है, तब उसके पेट में पीड़ा होती है, इसलिए मैं हिलना-चलना बंद कर दूं, जिससे मेरी माता सुखी होगी। ऐसा निश्चय कर उदर के एक हिस्से में प्रभु निश्चलता से रह गए, तब त्रिशलादेवी को इस प्रकार का शोक व्याप्त हो गया। वह कहने लगी
"अहो! मेरा गर्भ किसी दुष्ट देव ने हर लिया है, या गर्भ मर गया है- च्यव हो गया है, गल गया है, खिर गया अथवा स्थान-भ्रष्ट हो गया है। पहले मेरा गर्भ हिलता था, चलता था, अब चलता-फिरता नहीं है, मेरा गर्भ कुशल नहीं है।” त्रिशला देवी का मन खिन्न हो जाता है। खेद हुआ,
1172 1175
स्थानांगसूत्र -4/60-72 श्री कल्पसूत्र, श्री आनन्दसागरसूरिश्वरजी म.सा., गाथा 91, पृ. 160
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