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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
देखने का प्रयत्न करता है । वह जैसे-जैसे आत्मस्वरूप के दर्पण में अपने व्यक्तित्व को (ज्ञान - दर्शन - चारित्र आदि) सुन्दरता को गौर से देखने का प्रयत्न करता है, वैसे-वैसे परद्रव्यों के प्रति रही आसक्ति, प्रीति-भाव कम होने लगता है।
कहने का तात्पर्य यह है कि ज्यों-ज्यों ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार एवं वीर्याचार – ये पांच आचारों के पालन की गति बढ़ती जाएगी, त्यों-त्यों आत्म - स्वरूप की सुन्दरता में बढ़ोतरी होने से - द्रव्यों के सम्बन्ध में जीवात्मा की आसक्ति (मोह) कम होने लगेगी।
पर
(ब) शोक - संज्ञा (Instinct of Sorrow}
शोक-संज्ञा का स्वरूप
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संज्ञाओं के षोडशविध वर्गीकरण के अन्तर्गत 'शोकसंज्ञा' का क्रम पन्द्रहवां है। शोक वस्तुतः एक मनोगतभाव है, जो इष्टवियोग और अनिष्ट - संयोग के कारण होता है।' यह हम स्वाभाविक रूप से देखते हैं कि जब हमारी किसी प्रिय वस्तु या स्वजन का संयोग होता है, तो मन प्रसन्न हो जाता है, साथ ही जब अनिष्ट या प्रतिकूल व्यक्ति का संयोग होता है, तो मन खिन्न हो जाता है। ऐसा मनोभाव लगभग सभी जीवधारियों के व्यवहार में देखा जाता है। जैनदर्शन के अनुसार, वनस्पति - जगत् भी इससे प्रभावित होता है। जैनदर्शन में शोक को संज्ञा और मनोविज्ञान में एक मूलप्रवृत्ति कहा गया है।
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जैनदर्शन के अनुसार, वस्तुतः शोक नोकषाय - मोहनीयकर्म की एक प्रवृत्ति है। नो- कषाय चार प्रधान कषायों के परिणाम होते हैं या उन्हें उत्तेजित करते हैं। जिस कर्म के उदय से जीव किसी निमित्तपूर्वक अथवा बिना किसी निमित्त के भी शोकाकुल होता है, उसे शोक - मोहनीयकर्म कहते हैं
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1) आचारांगसूत्र - 1/2 / 2 विवेचना
2) अभिधानराजेन्द्रकोश खण्ड - 7, पृ. 301
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स च सचिताचित्तामिश्राणमिष्ठानां वियोगेन, अनिष्टानां संयोगेन च भवति ।
अभिधान राजेन्द्रकोश, भाग-7, पृ. 1157
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