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________________ 488 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व विकल्परूपी मदिरा-पात्रों से सदा मोह-मदिरा का पान करनेवाला यह जीवात्मा, सचमुच जहाँ हाथ ऊँचे कर तालियाँ बजाने की चेष्टा की जाती है, वैसे संसाररूपी मदिरालय का आश्रय लेता है। मोह-मदिरा का नशा, अर्थात् वैषयिक-सुखों की चाह, उसमें अटका जी न जाने कैसे उन्मत्त, पागल बन मौजमस्ती करता है। जब तक मोह-मदिरा के चंगुल से आजाद न हुआ जाए, विकल्प के मदिरा-पात्र फेंक न दिए जाएं, तब तक निर्विकार ज्ञानानन्द में स्थिरभाव असंभव है। जब तक ज्ञानानन्द में स्थिर न हों, तब तक परब्रह्म में मग्न होना तो दूर रहा, उसका स्पर्श तक कठिन है। स्थिरता के पात्र से ज्ञानामृत का पान करने वाली जीवात्मा ही विवेकी, विशुद्ध व्यवहारी बन सकती है। निर्मलं स्फटिकस्येव, सहज रूपमात्मनः । अध्यस्तोपाधि सम्बन्धो, जड़स्तत्र विमुह्यति ।। 6 ।। __ आत्मा का स्वाभाविक सिद्ध स्वरूप स्फटिक जैसा निर्मल है। उसमें उपाधि का संबंध आरोपित करके अविवेकी जीव उसमें फंसता है। अनारोपसुखं मोह-त्यागादनुभवन्नपि। आरोपप्रियलोकेषु, वक्तुमाश्चर्यवान् भवेत् ।। 7।। वीतराग सर्वज्ञ भगवन् द्वारा प्रतिपादित योगमार्ग पर निरंतर गतिशील योगी पुरुष, देवाधिदेव की अनन्यकृपा से जब मोह का क्षय-उपशम करने वाला बनता है और उस पर छाए मोहादि-आवरण के प्रभाव को नहींवत् बना देता है, तब आत्मा के स्वाभाविक सुखों का अनुभव करता है और रात-दिन असत्याचरण में खोए मिथ्यात्वी जीवों को अपना अनुभव कहने में आश्चर्य करता है। यश्चिद्दर्पणविन्यस्त-समस्ताऽऽचारचारूधीः । क्व नाम स परद्रव्ये-ऽनुपयोगिनि मुह्यति? || 8।। __परद्रव्य तब तक ही मन को मलिन, मोहित करने में समर्थ होता है, जब तक शीशे के दर्पण में मनुष्य अपने सौन्दर्य और व्यक्तित्व को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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