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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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___ मोह का हनन करनेवाला एक ही अमोघ शस्त्र है और वह है : मैं शुद्ध आत्म-द्रव्य हूँ, केवलज्ञान मेरा स्थायी गुण है, मैं उससे अलग नहीं और अन्य पदार्थ मेरे नहीं, इस प्रकार का चिन्तन करना। इससे मोह समाप्त होने लगता है।
यो न मुह्यति लग्नेषु, भावेष्वौदयिकादिषु । आकाशमिव पड्.केन, नाऽसौ पापेन लिप्यते ।। 3 ।।
जो जीव लगे हुए औदायिक भावों में मोहमूढ़ नहीं होता है, वह जीव, जिस तरह कीचड़ से आकाश लिप्त नहीं होता, ठीक वैसे ही पापों से लिप्त नहीं होता।
कहने का तात्पर्य यह है कि मोह राजा भले ही अनेकविध बाह्य-आभ्यन्तर आकर्षण पैदा करे, अपना जाल फैलाए, पर जीवात्मा को उसके वशीभूत नहीं होना चाहिए, बल्कि उससे दूर रहना चाहिए, तब मोह का जीव पर प्रभाव नहीं पड़ेगा, वह मोह बार-बार प्रयत्न करके हार जाएगा। जिस तरह कोई व्यक्ति आकाश को मलिन करने के लिए कीचड़ उछाले, तो उससे आकाश मलिन नहीं होता, ठीक उसी तरह, मोह द्वारा उछाले गए कीचड़ से आत्मा मलिन नहीं होती और ना ही वह पाप के अधीन होती है।
___कहा गया है - अराग–अद्वेष के कवच को मोह के तीक्ष्ण तीर भी भेदने में पूर्णतया असमर्थ हैं।
पश्यन्नेव परद्रव्य-नाटकं प्रतिपाटकम् । भवचक्रपुरस्थोऽपि, नाडमूढः परिखिद्यते ।। 4।।
अनादि-अनंत कर्म-परिणामरूप राजा की राजधानी-स्वरूप भवचक्र नामक नगर में वास करते हुए भी एकेन्द्रिय आदि नगर की गली-गली में पर-द्रव्य के जन्म-जरा और मरणरूपी नाटक को देखती हुई मोहविमुक्त आत्मा दुःखी नहीं होती।
विकल्पचषकैरात्मा, पीतमोहाऽऽसवो ह्ययम् । भवोच्चतालमुत्ताल - प्रपञ्चमधितिष्ठति ।। 5 ।।
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