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________________ 486 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व विनयविजयजी शान्तसुधारस ग्रंथ में चौथी एकत्व-भावना को समझाते हुए कहते हैं – “सोना जैसी कीमती धातु भी यदि हल्की धातु से मिल जाती है, तो अपना निर्मल रूप खो बैठती है, वैसे ही आत्मा परभाव में अपना निर्मल रूप खो बैठती है। 1154 “परभाव के प्रपंच में पड़ी हुई आत्मा न जाने कितने स्वांग रचती है, पर वही आत्मा अनादि कर्मों के मैल से मुक्त हो जाए, तो शुद्ध सोने की भाँति चमक उठती है।1159 हमने बहुत बार मनुष्य-जन्म पाया, परन्तु आध्यात्म-चिंतन नहीं किया। अब आध्यात्मिक-दृष्टि पाकर मोह की छाती में आत्मा के एकत्व का तीर मारना ही है, मोह ममत्व को नष्ट करना ही है। वार अनन्त चुकीया चेतन। इण अवसर मत चूक। मार निशान मोहराय की छाती में मत उक।। इस प्रकार, मोह पर विजय प्राप्त करने के लिए ज्ञानसार में यशोविजयजी ने मोह–अष्टक के माध्यम से, मोह पर विजय किस प्रकार से हो, इसकी चर्चा की है,1156 जिसे हम यहाँ यथावत् प्रस्तुत कर रहे हैं - अहं ममेति मन्त्रोऽयं, मोहस्य जगदान्ध्यकृत् । अयमेव हि नपूर्वः, प्रतिमन्त्रोऽपि मोहजित् ||1|| 'मैं' और 'मेरा' -यह 'मोह' राजा का मंत्र है, वह जगत् को अंधा और अज्ञानी बनानेवाला है, जबकि इसका प्रतिरोधक मंत्र भी है, जो मोह पर विजय हासिल करानेवाला है। शुद्धात्मद्रव्यमेवाऽहं, शुद्धज्ञानं गुणो मम। नान्योऽहं न ममान्ये चे-त्यहो मोहस्त्रमुल्वणम् ।। 2|| 1154 पश्य कांचनमितरपुद्गलमिलितमंचति कां दशाम्। केवलस्य तु तस्य रूपं विदितमेव भवादृशाम् ।। – शान्तसुधारस ग्रंथ-4/5 1155 1) एवमात्मनि कर्मवशतो भवति रूपमनेकधा। कर्ममलरहिते तु भगवति भासते कान्चविधा ।। - वही-4/6 2) प्रवचनसार, गाथा-7 1156 ज्ञानसार –मोहत्याग, 4, गाथा 25-32, श्री भद्रगुप्तविजयजी, पृ. 39 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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